यह चरित राम का, मानस कवि तुलसी का,
अनुभूति स्वयं ही व्यक्त हो उठे जैसे !
जो कह न सके, लेखनी लिख गई वह सब,
जीवन के मीठे- खट्टे अर्थ समेटे !
कवि को समझा तो इतना,जान सकी हूँ
रत्नावलि छिपी हुई सीता के पीछे ,
हो व्यकुल राम ,पूछते खग-मृग-तरु से,
मन भटका तुलसी बैठे आँखें मीचे !
तन नवल और सुन्दर सारी रत्ना की,
,मन की आँखों के आगे डोल रही है ,
सीता की पावन काया में वह छाया
कवि के भीतर के सच को खोल रही है !
कवि का अपना उर हुआ वेदना विह्वल,
उस विरह व्यथा से राम वनों में रोये !
वह स्वयं रहा निष्कासित जगजीवन से ,
तो राम अकेले कहाँ चैन से सोये !
जब आदि काल के करुणा सिक्त हृदय से
जो पीर पराई फूट पड़ी बन वाणी !
यह कथा राम की कहलाई इससे क्या ,
अपनी अपनी है सबकी राम-कहानी !
कुछ नहीं दिखाई दे ओझल रह जाये
घन- वाष्पों से छाया हो मन का दर्पण !
सब कुछ समेट सारी विचलन संयत कर,
अपनी ही राम-कहानी कर दी अर्पण !
रचना क्या? कवि का सच,रस रूप ग्रहण कर,
बन गयी कथ्य सारी अपनी ही बीती !
कहने-सुनने को फिर अवकाश कहाँ
अंतर की पीर छंद बन-बन कर फूटी !
आभास स्वयं मन को मन से हो जाता
जीवन कैसे बीता यह कौन बताये ,!
उस वीणा से हर मन के तार जुड़े हैं,
जो स्वर भर-भर कर उर तंत्री पर गाये !
कोई अपनी,कोई औरों की कहता ,
कोई औरों के मिस अपनी कह जाता ,
यह मेरी -तेरी नहीं अकेले जन की ,
पीड़ा से है प्रत्येक हृदय का नाता !
कैसी विरक्ति जो आत्मा में रति बनती ,
आसक्ति विरह में तप, साधना बने जब !
यों तो दिन-रात घटा करता कुछ जग में
कोई घटना बन जाती युग की करवट !
Wednesday, October 28, 2009
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पहली बार आपको पढ़ा, बहुत प्यारी शैली !
ReplyDeleteशुभकामनायें !
PS: Please remove word verification, has no meaning but inconvenience to comments.
PS: Please remove word verification
ReplyDelete- कैसे हटाऊँ ,सतीश जी ?