Sunday, December 26, 2010

भूत

*


भूत कभी मरता नहीं .

जितना भागोगे ,घेरेगा .

दौड़ना मत, भगाता चला जाएगा.

दूर ,और दूर !

तंत्र-मंत्र अभिचार , सब बेकार ,

अपना मौका तलाशता

हवाएँ सूँघ लेता है .

*

अकेली ,कुछ कमज़ोर ,

शिथिल-सी मनस्थिति देख

अनायास छाया सा घिर ,

तन-मन आविष्ट-अवसन्न कर

छोड़ देता है किसी अगाध में .

*

जितना भागोगे ,घेरेगा ,

भगाता चला जाएगा ,

विस्मृति भरी दूरियों तक.

और उसके लिए सच है -

जहाँ पलट कर देखो ,

पीछे लग जाएगा .

क्योंकि भूत कभी मरता नहीं .

*

Thursday, December 2, 2010

अनलिखा

अनलिखा वह पत्र मन ने पढ़ लिया होगा !

*
मुखर हो पाई न चाहे कामना तो थी ,
सत्य हो पाई न हो , संभावना तो थी ,
बहुत गहरे उतर अंतर थाह लेता जो
रह गई अभिव्यक्ति बिन पर भावना तो थी,
उड़ा डाला आँधियों ने और तो सब कुछ ,
किन्तु भारी-पन यथावत् धर दिया होगा
*
कुछ न मिटता, रूप बस थोड़ा बदल जाता ,
स्वरों ने गाया न हो पर गीत रच जाता.
अनबताया रह गया कुछ मौन में डूबा
रेतकण सा अँजुरी से रीत झर जाता .
रिक्तियों को पूरने की अवश मजबूरी
जो मिला स्वीकार नत-शिर कर लिया होगा !
*

Monday, November 1, 2010

जीवन-काँवर

*
भौतिकता और चेतना के दो घटवाली जीवन-काँवर ,
लेकर आता है जीव ,श्वास की त्रिगुण डोर में अटका कर ,
*
हर बार नये ही निर्धारण ,काँवरिये की यात्रा के पथ
चक्रिल राहों पर भरमाता देता फिर बरस-बरस भाँवर .
*
घट में धारण कर लिया आस्था-विश्वासों का संचित जल
अर्पित कर महाकाल को फिर, चल देता अपने नियतस्थल !
*

Thursday, October 7, 2010

जाने के बाद

मत रोओ शकुन्तला ,

मत रो बहिन .


वे निकल गए आगे

थोड़ी देर बाद चलेंगे हम .

*

जाना अकेले है ,

आए भी थे अकेले ,

इस बीच देखे कितने मेले ,

कुछ गुज़र गया .कुछ चल रहा है

बीत जाएगा यह भी.

न तुम दे सकोगी साथ मेरा

न मैं तुम्हारा

अगर चाहें भी तो

*

उनके साथ थीं तुम

मैने भी अनुभव किया था उन्हें ,

इस दूरी में शामिल की गई थी मैं ,

और मन ने मान लिया था साथ हूँ .

उनके जाने का खालीपन ,व्यापा है मुझे भी !

पर मैं नहीं रोई ,

वे कौन थे मेरे ,

बस अनुभव ही तो किया था यहाँ से

तुम भी मत रोओ ,शकुन्तला .

चलेंगे हम-तुम एक दिन !

जिसकी बारी जब आए .

*

मना रही हूँ -

वे शान्ति से रहें

जहाँ हों तुष्ट रहे !

हमारे लिए भी मनाएगा कोई ,

जाने के बाद .

चलना है शकुन्तला, हमें भी ,

रोओ मत बहिन ,

दुख मत करो जाने दो उन्हें

व्यथा ,और विवशताओँ से दूर

चिर- शान्ति में .

*

Sunday, September 26, 2010

श्यामला

*
ईषत् श्यामवर्णी,

उदित हुईं तुम

दिव्यता से ओत-प्रोत

अतीन्द्रिय विभा से दीप्त

मेरे आगे प्रत्यक्ष .

मैं ,अनिमिष-अभिभूत-

दृष्टि की स्निग्ध किरणों से

अभिमंत्रित, आविष्ट .

कानों में मृदु-स्वर-

'क्या माँगती है, बोल ?'

*

द्विधाकुल हो उठा मन -

पल-पल बदलती दुनिया और चलती फिरती इच्छाएँ

जो कल थी आज नहीं .

जो हूँ ,आगे नहीं .

काल- जल में बहता

निरंतर बनता-बिगड़ता प्रतिबिंब -मैं ,

क्या माँगूँ ?
*
क्या माँगूँ -

सुख ,यश ,धन बल .सब बीत जाएँगे ,

परछाइयाँ, जिन्हें समझना मुश्किल ,

पकड़ना असंभव

मन के घट और रीत जाएँगे

*

क्या माँगू ,इन सर्वसमर्थ्यमयी से ?

जैसे सम्राट् अबोध ग्राम्य बालक से

अचानक पूछे ,'बोल , क्या चाहिए '?

क्या बोलेगा विमूढ़ बेचारा ,

कहाँ तक विस्तारेगा लघुता अपनी!

क्या बोलूँ मैं?

*

स्निग्ध कान्ति में डूबा ,

इन्द्रियातीत हो उठा मन, मौन .

अनायास जागा अंतर - स्वर -

'जन्म-जन्मान्तर तक

मेरी आत्मा का कल्याण करों माँ ,

तुम्हीं जानो !'

*

करुणार्द्र नयन-कोरों से थाहतीं

तुम रुकी रहीं कुछ क्षण,

मंद स्मिति आनन पर झलकी ,

'तो, मैं चलती हूँ ,पुत्री.’

*

पुत्री ?

पुत्री कहा तुमने ?

मुझे?

क्या शेष रहा अब.,

कृतार्थ मैं !
*

'बस, आश्वस्त करती रहना,

 हर विचलन में , माँ ,

कि सिर पर हाथ तुम्हारा है!'

तुम अंतर्धान हो चुकीं थीं .

*

Friday, September 3, 2010

अदम्य-

*
धरती तल में उगी  घास
यों ही अनायास ,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी  जाऊँ ,पोसी जाऊँ!
*
हर तरह से, रोकना चाहा ,.
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर  ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
*
सिर उठा चली आऊँगी ,
जहाँ तहाँ ,यहाँ -वहाँ ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
*

Wednesday, August 18, 2010

मेरे देश उदास न होना . *

*
कुछ पहचाने कुछ ,अनजाने दृष्य देख मन भरमा जाता,
एक पहेली पसरी लगती  ,अपना देश याद आता है !
*
कहाँ  गए सारे टेसू- वन ,कैसे सूखी वे सरिताएँ १
 उजड़ा जीवन जीती होंगी साँसें, जैसे हों विधवाएँ
जिनका तन-मन-जीवन सींचा ,तूने किया नेह से पोषित
मेरे देश ,शप्त-सा तू अपनी ही संतानों से शोषित.
वहाँ पड़ रहा सूखा, मेरे नयनों में सावन-घन घहरे,
कोई संगति नहीं किन्तु कुछ रह रह कर घिर-घिर  आता है
*
कितना बदल गया जीवन-क्रम इस  पड़ाव तकआते आते !
कलम नहीं रुक पाती ,पर  कैसे ,लिख पाए सारी बातें ,
धरती की फसलों पर जैसे शाप छा गए हों अतृप्ति के
जल-धाराएँ हो मलीन उत्ताप जगा देतीं विरक्ति से
भरी भरी सरिताएँ ,घन वन नीले पर्वत देख यहाँ के
अपनी श्यामल धरती का स्नेहिल आवेग जाग जाता है ..
*
उड़ जाते संतप्त हृदय के भाव ,अभाव शेष रहजाते
शब्द न मेरे बस में उठकर अनायास अंकित हो जाते
मेरे देश ,आँसुओं की बेरंग इबारत कौन पढ़ेगा ,
चकाचौंध के पीछे छाए अवसादों की कौन कहेगा
यहाँ वक्र रेखाओंवाले मकड़-जाल फैले पग-पग पर ,
मेरे मोहित मानस को वो ही परिवेश याद आता है !
*
उस जल की बूंदें संचित हैं पके हुए जीवन के घट में
उस माटी की गंध सुरभि बन समा गई है नासापुट में
तेरे लिए कहे कोई कुछ, वह ध्वनि कानों से टकराती
साँसों में तेरे समीर की शीतल छुअन अभी है बाकी ,
बहुत पहाड़े पढ़ा चुकी पर फिर भी मन की रटन न टूटी
तेरी आँचल-छाया में अपना संसार याद आता है
*
अभी अमाँ के प्रहर न बीते ,दीप-वर्तिका पर काजल है ,
मेरे देश हताश न होना ,बीत रहा हर भारी पल है ,
मत उदास होना ,कोई संध्या फिर  नया चाँद लाएगी ,
सारा गगन गुँजाते तेरे वे सँदेश धरती गाएगी .
मेरी जननी , यह अनन्यता उन श्री-चरणों में स्वीकारो
तेरा नामोच्चार  प्राण में संजीवन छलका जाता है !


**


Monday, August 9, 2010

संबंध

*
डाल पर दो फूल खिलते साथ ही जो
टूटने के बाद उनके हो गए जब स्थान दो ,
जिनमें नहीं समता कहीं भी.
क्या परस्पर वहाँ
कुछ भी शेष रह जाती न ममता ,
सूख जाते स्नेह के सब स्रोत?
क्या सभी संबंध उनके
टूट जाते हैं इसी से?
*

Thursday, July 29, 2010

मैं तुम्हारी भैरवी हूँ

उठो भैरव ,मैं तुम्हारी भैरवी हूँ !
*
यह जगत जो कर्म का पर्याय होता ,
और जो कि प्रबुद्ध जीवन-मर्म का समवाय होता ,
रह गया बस कुमति की औ'दानवों की विकट लीला ,
औ त्रिशूली, भूधरों को कर विखंडित .
इस धरा की साँस को नव वायु देने
उतर आओ धरा पर मैं टेरती हूँ !
*
ये बिके-से लोग ,कैसे साथ देंगे ?
अकर्मण्य कुतर्क ही हिस्से पड़ेंगे
यहाँ सबको सिर्फ़ अपनी ही पड़ी है .
पशु नितान्त मदान्ध सारे खूँदते धरती रहेंगे
चले आओ तुम प्रलय का नाद भरते ,
कंठ हित नर-मुंडमाल लिए खड़ी हूँ !
*
अरे विषपायी, उगल दो कंठ का विष ,
भस्म हो जाएं सभी कल्मष यहाँ के ,
गंग की धारा जटाओं में समा लो ,
भेज दो दिवलोक में फिर सिर चढ़ा के
घूमता गोला धरा का जिस धुरी पर
अंतरिक्षों में घुमाकर फेंक डालो !
रच दिया परिशिष्ट ,उपसंहार कर दो ,
चलो रुद्र कराल बन तुम काल, मैं प्रलयंकरी हूँ .
*
आज आँसू नहीं बस अंगार मुझ में
एक भीषण युद्ध की टंकार स्वर में
नहीं संभव जहाँ सहज सरल स्वभाव जीना
जब कृतघ्नों की हुई हो चरम सीमा
व्यर्थ हों वरदान कुत्सा से विदूषित
वार उन का ही उन्हें कर जाय भस्मित
रक्तबीजों के लिए विस्तार जिह्वा मैं खड़ी हूँ !
उठो भैरव ,मैं तुम्हारी भैरवी हूँ !
*

Friday, July 16, 2010

समग्र शान्ति के लिए

समग्र शान्ति के लिए हिमालया पुकारता !
कि जीव मात्र के लिए धरा कुटुम्ब ही रहे ,
वनों,समुद्र पर्वतों में शंख-ध्वनि गुँजारता .
*
अलग न भूमि खंड ये ,अखंड है वसुन्धरा ,
हृदय विशाल हो मिलन समान मित्र-भाव का ,
न स्वार्थ साधना ,न हो प्रवंचना ,विडंबना ,
मिलो तो प्यार से मिलो ,समुद्र मार्ग दे रहा !
नई सदी मनुष्यता के पाठ बाँचती रहे ,
नवीन युग प्रवेश-द्वार में खड़ा निहारता !
*
ये वोल्गा .ये हाँगहो .फ़रात ,नील ,ज़ेम्बसी ,
धरा को बाँह में भरे ये ऊष्ण-शीत बंध भी,
गगन,समीर,जल.अनल ,सुदूर अंतरिक्ष तक ,
अखंड शान्ति व्याप्त हो विकास पथ सँवारती !
सिहर रही अमेरिका के राकियों की शृंखला
अमेज़नी तटों का अंधकार दीप्ति माँगता !
*
ज़हर न खेत में उगे ,पुकारता है दारुवन,
उदास हर कली हुई ,चले न बारुदी पवन .
कि रंग-भेद ,नस्ल-धेद,पंथ-भेद अब न हों ,
मदान्ध द्वेष भस्म कर न दे कहीं सभी सपन
धुआँ-धुआं हुआ पवन गुबार हिमित द्वीप के,
सुदूर पूर्व में खड़ा हुआ फ़ुज़ी फुँकारता!
*
कि गंग सिंधु,ब्रह्मपुत्र,नर्मदा पुकारती ,
पुकारता है शोण नद ,कि टेरती महानदी ,
अमोघ शान्ति-मंत्र--पाठ सृष्टि को सुना रही
समुद्र संधि पर अड़ी खड़ी प्रबुद्ध भारती
समृद्ध ऋद्धि-सिद्धि से धरा बने मनोरमा,
मनुष्य की मनुष्य से बनी रहे समानता !
*

Wednesday, June 30, 2010

प्रथम छंद

*
वह प्रथम छंद,
बह चला उमड़ कर अनायास सब तोड़ बंध,
ऋषि के स्वर में वह वह लोक-जगत का आदि छंद !
*
जब तपोथली में जन-जीवन से उदासीन,
करुणाकुल वाणी अनायास हो उठी मुखर
क्रौंची की दारुण -व्यथा द्रवित आकुल कवि-मन
की संवेदना अनादि-स्वरों में गई बिखर .
*
अंतर में कैसी पीर ,अशान्ति और विचलन
ऐसे ही विषम पलों में कोई सम्मोहन
स्वर भरता मुखरित कर जाता अंतर -विषाद
मूर्तित करुणा का निस्स्वर असह अरण्य रुदन ,
*
तब देवावाहन - सूक्त स्तुतियाँ सब बिसार
कवि संबोधित कर उठा,' अरे ,ओ ,रे निषाद..'
स्वर प्राणि-मात्र की विकल वेदना के साक्षी
शास्त्रीय विधानों रीति-नीति से विगत-राग.
*
जैसे गिरि वर से अनायास फूटे निर्झर
उस आदि कथ्य से सिंचित हुआ जगत-कानन,
कंपन भर गया पवन में जल में हो अधीर ,
तमसा के ओर-छोर ,गिरि वन ,तट के आश्रम !

खोया निजत्व उस विषम वेदना के पल में
तब प्राणिमात्र से जुड़े झनझना हृदय- तार
उस स्वर्णिम पल में ,बंध तोड़ आवरण छोड़
ऊर्जित स्वर भर सरसी कविता की अमिय-धार .,,
*

Monday, June 14, 2010

किरातिन

*
किस किरातिन ने लगा दी आग ,
धू-धू जल उठा वन !
रवि किरण जिसका सरस तल छू न पाई
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से !
पार करते उन सघन हरियालियों को
प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो ,
हो उठे मृदु श्याम वर्णी ,

ओढे है अँगारे !
जल रही है घास-दूर्वायें कि जिनको
तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे ,
भस्म हो हो कर हवाओं में समाये !
जल गये हैं तितलियों के पंख ,
चक्कर काटते भयभीत, खग,
उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़,करते रोर
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से !

और सर्पिल धूम लहराता गगन तक !
वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें ,
धूम के पर्वत उठे ,
लपटें लपेटे ,शाख तरु की ,फूल ,फल पत्ते निगलती !
भुन रहे जीवित, विकल चीत्कार करते जीव ,-
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक !
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तित शिखायें वह्नि की
लपलप अरुण जिहृवा पसारे ,कर रहीं पीछा निरंतर !

किलकिलाती है किरातिन ,
जल रहा वन खिलखिलाती है
किरातिन !
*

Tuesday, May 11, 2010

जन्म

*
यवनिकाओं खिंचे रहस्यलोक में
ढल रहीं अजानी आकृति
की निरंतर उठा-पटक ,
जीवन खींचता
विकसता अंकुर
कितनी भूमिकाओं का निर्वाह एक साथ
नए जन्म की पूर्व-पीठिका .
*
कितने विषम होते हैं
जन्म के क्षण
रक्त और स्वेद की कीच
दुसह वेदना ,
धरती फोड़ बाहर आने को आकुल अंकुर
और फूटने की पीड़ा से व्याकुल धरती !
*
पीड़ा की नीली लहरें
झटके दे दे कर मरोड़ती ,
तीक्ष्ण नखों से खरोंच डालती हैं तन
बार-बार प्राणों को खींचती -सी !
फूँकने में नए प्राण ,
मृत्यु को भोगती
जननी की श्वासें श्लथ ,
लथपथ .
*
देख कर आँचल का फूल
सारी पीड़ाएँ भूल
नेह-पगी अमिय-धार से सींचती,
सहज प्रसन्न .परिपूर्ण ,आत्म-तुष्ट
जैसे कोई साखी या ऋचा
प्रकृति के छंद में जाग उठे !
*

Thursday, May 6, 2010

क्यों ?

*
मेरे लिए कहीं निवृत्ति है
बार-बार बिखरता है जो सपना
कहीं घर है मेरा अपना ?
कुछ छूट पाने का अवसर है या
अपेक्षाएँ पूरी किए जाना यही नियति है ?
सब कुछ निभाए जाना क्या सहज प्रकृति है ?
कुछ चाहना ,
या जीवन को अपनी तरह थाहना ,
गुनाह है मेरा ?
कहाँ मुक्ति है ,
वानप्रस्थ या सन्यास ,
मुझे क्यों वर्जित है ?
*

Sunday, May 2, 2010

जरा जल्दी आना

ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
*
आ रही याद जाने कितनी उस आँगन की ,
क्या पता कहीं कुछ शेष रह गई हो डोरी .
अब नए रंग में रँगे हुए अपने घर की ,
उन कमरों की जिनमें अबाध गति थी मेरी ,

अपनी आँखों से एक बार जाकर देखूँ
अनुमानों से संभव न रहा अब बहलाना !
*
शायद कोई भूले-भटके ही आजाए
आपा-धापी में स्नेहिल नाते रीत गए
जो बिखर गए टूटी माला के मनकों से ,
उनको समेटने दिन कब के बीत गए .
*
इस बार बुलाने को खत ही काफ़ी होगा ,
मुश्किल लगता है पूरा बरस बिता पाना !
ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
*

Sunday, April 25, 2010

अपना आँगन

*
हम आज बिदाई कैसे दें ,क्या कहें तुम्हें ,मन में जो है वे बोल न मुख पर आते हैं ,
हैं शब्द बड़े लाचार आज ये समझ लिया उमड़े बादल बिन बरसे भी रह जाते है .
ओ,मीत ,ज़िन्दगी की ये राहें ऐसी हैं,कोई चाहे भी तो रुकता है कौन यहाँ ,
हम आज यहाँ जिस कोलाहल के बीच खड़े ,कल सूना होगा और चतुर्दिक् मौन यहाँ .
*
हँस-खेल नजाने कितने दिन यों बीत गए इतने वर्षों का साथ अचानक आज छुटा ,
लो, आज बिदा की बेला सिर पर आ पहुँची ,जीवन की पटरी बदल रही दूसरी दिशा .
प्रिय साथी, हमने मंगल-दीप सजाए हैं,गुरु-जन ममता से भर असीसते हैं तुमको ,
पथ रखें उजेला उर की शुभाकांक्षाएँ ,तुम रहो प्रसन्न ,न व्यर्थ उदास करो मन को
*
यह शिक्षालय जिसके आँगन में शीष झुका ,जीवन का सुन्दर सा अध्याय पढ़ा हमने ,
झर-झर झरते पीले कनेर की मंद गंध ,ये आम नीम के बौर सँजोए खड़े तने .
ये दिन जो बीत गए ,तुम याद करोगे ही ,कुछ दृष्य और परिवर्तित होते जाएँगे ,
पर देख तुम्हारी रिक्त जगह कुछ खटकेगा ,तुमको तो आगे और लोग मिल जाएंगे .
*
आकाशों तक जाती ये विस्मय-मुग्ध दृष्टि ,सीढी-सीढी चढते ये चिर-गतिशील चरण ,
मुस्कान भरे अधरों के सुन्दर ,मधुर बोल ,खींचती तुम्हारा शब्द-चित्र अनुभूति गहन .
ये मिटनेवाले नहीं ,अमिट हैं यादों में ,हम सब को बीते दिन की याद दिलाएँगे .
तुम आगे बढते जाओ ,समय न लौटेगा ,पर स्मृतियों में ये फिर-फिरकर आ जाएँगे .
*
तुमने जो स्नेह और अपनापन सींचा है ,वह याद रहेगा हमें तुम्हारा मधुर प्यार ,
तुम यहां रुके थे इसके चिर-आभारी हम,जा रहे आज उर पर आ बैठा एक भार ,
ओ मीत ,बहुत-कुछ है जो उमड़ रहा मन में पर कहने की भी कुछ अपनी सीमाएं हैं ,
इसलिए शेष रह जाने दो जो नहीं कहा ,जाने कितने स्वर रह जाते अनगाए हैं .
*
ओ,पथ के साथी ,आगे बढ़ो ,और आगे ,सुन्दर भविष्य के स्वप्न बुलाते हैं तुमको ,
ये नेह भरे मन बिदा दे रहे तुम्हें आज ,ये दीप सदा आलोकित रक्खेंगे पथ को ,.
यों ही शिरीष के फूल कभी पथ में देखो ,या कभी अचानक हो जाए उन्मन-सा मन,
जब परिचयहीन नए-पथ में कुछ नया लगे तो तुम्हें याद आ जाए ये अपना आँगन !
*

Wednesday, April 14, 2010

शेष समर

*
कुछ नहीं है मेरे पास इनके सिवा ,
मत छीनो मुझसे ये शब्द !
धरोहर है पीढ़ियों की .
शताब्दियों की ,सहस्राब्दियों की.
बहुत कुछ खो चुकी हैं आनेवाली पीढ़ियाँ ,
अब ग्रहण करने दो
मुक्त मन यह दाय !
*
उन्हें अतीत से मत काटो
कि उस निरंतरता से बिखर
वर्तमान का अनिश्चित खंड-भर रह जाएँ !
हम हम नहीं रहेंगे .
अपनी भाषा से कट कर
अतीत के सारे रागों से,
अपनी पहचान से दूर हो कर !
*
मत वंचित करों उन शब्दों से .
जिनका खोना हमारी व्याप्ति को ग्रस ले
और कुछ नहीं बचता है यहाँ
बस गूँज जाते हैं यही शब्द सारे भाव समेटे
उर- तंत्र को झंकृत करते
*
भाषा ,जोड़ती है अतीत को वर्तमान से
व्यक्ति को व्यक्ति से ,अंतः को बाह्य से ,
काल की अनादि धारा से ,
खंड को सान्त को अखण्ड-अनन्त करती हुई .
जीवन रस से आपूर्ण करती,
प्रातःसूर्य सी ऊर्जा से प्लावित कर
मन का आकाश दीप्त कर बीते हुए बोधों से !
*
वे दुरूह नहीं हैं.
एक जीवन्त लोक है शब्दों का .
शताब्दियों पहले
इन्हीं ध्वनियों के सहारे ,
सारे अर्थ अपने में समेटे
यही तरंगें उनके मन में उठी होंगी ,
अतीत के उन मनीषियों से जुड़ जाता है मन.
इन शब्दों के
अंकनों में समा जाती है
सुन्दरतम अनुभूतियाँ !
*
मात्र शब्द नहीं निषाद , क्रौंच* और भी बहुत सारे ,
ये दृष्य हैं .
मानस में आदि कवि को उदित करते .
जटा- कटाह,नवीन-मेघ- मंडली ,विलोल-वीचि-वल्लरी*
महाप्रतापी लंकेश्वर की साकार कल्पनाएँ !
'अमर्त्य वीर पुत्र*
को प्रशस्त पुण्य पंथ*
पर चलने को पुकारते जयशंकर 'प्रसाद'
नीर भरी दुख की बदली* महादेवी की रूपायित करुणा
मेरे नगपति! मेरे विशाल*
दिनकर का आवेग मानस को हिलोरें देता ,
और नहीं तो जो तटस्थ है
समय, लिखेगा उनका भी अपराध*
क्योंकि समर शेष है* .
बहुत समर्थ हैं ये शब्द ,
प्राणवंत और मुखर !
अंकित होने दो हर पटल पर
चिर-रुचिर जीवन्त भाषा में !
*
भाषा नहीं ध्वनित काल है यह,
जो पुलक भर देता है
मानस में ,
अलभ्य मनोभूमियों तक पहुँचा कर
सेतु बन कर
दूरस्थ काल-क्रमों के बीच
और अखंड हो जाते हैं हम !
*
---
*कवियों के उद्धरण .


एक प्रतिक्रिया -
--- On Thu, 4/15/10, alam khurshid wrote:

From: alam khurshid
Subject: Re: [ekavita] शेष समर
To: ekavita@yahoogroups .com
Date: Thursday, April 15, 2010, 4:01 AM

आप की कविता अच्छी लगी.शब्दों के प्रति आप का प्रेम मन को छूता भी है
और शब्दों की अहमियत भी उजागर करता है.आइये! हम सब मिल कर प्रण
करें की हम शब्दों को मरने नहीं देंगे.
एक अच्छी कविता के लिए आप को बधाई.
आप बुरा न मानें तो एक बात कहना चाहता हूँ कि मेरा ख़याल है कि आप शब्दों
को खर्च करने में थोड़ी कंजूसी करतीं तो कविता और प्रभावशाली होती.
सादर,
आलम ख़ुर्शीद

*
उत्तर -
आपने इतने मनोयोग से कविता पढ़ी और उसे महत्व दिया ,आभारी हूँ .
आपने अपनी बात कही ,मुझे बहुत अच्छा लगा .
मुझे भी अपनी बात कहने का अवसर मिला -
कविता सचमुच लंबी हो गई है ,थोड़े में भी इस बात को कहा जा सकता था ,कलापक्ष भी अधिक प्रभावशाली होता .
पर इसे मैंने जिस उद्देश्य से लिखा पता नहीं वह कितना पूरा होता ! हिन्दी भाषा का व्यापक ज्ञान सबको हो यह ज़रूरी नहीं. और आज कल और भी नहीं क्योंकि कार्य क्षेत्र के लिए और सामान्य काम चलाने के लिए और भी भाषाएँ हैं .मैं यह स्पष्ट करना चाहती थी कि रामायणकाल के भी पहले से (रावण का पुत्र मेघनाद ,राम-लक्ष्मण के बराबर का था,और लंकेश ने जिन शब्दों का अपनी रचनाओं में प्रयोग किया वे और भी बहुत पहले से चले आ रहे होंगे )जो शब्द प्रयोग में आ रहे थे वे अधिकांश में अब भी हमारी भाषा में विद्यमान हैं .काल के प्रवाह में ,भाषा का विकास हुआ ,नए शब्द आए -बहुत स्वाभाविक था .भाषा के व्यवहार के अनुरूप व्याकरण का रूप बदलता गया .संयोगात्ममकता(संस्कृत में शब्दों को एक दूसरे जोड़ दिया जाना ,विभक्तियाँ शब्द में ही जोड़ दी जाती हैं ) से वियोगात्मकता (
हिन्दी आदि भाषाओं में अलग रहती हैं जैसे मोहन ने ,बच्चे को आदि ) की ओर प्रवृत्ति हुई ,क्यों कि संश्लेषण उच्चारण और लेखन में , कठिन होता है. वह सरल होती गई .उस समय का उदाहरण देकर यही स्पष्ट करना चाहती थी कि भाषा का रूप बदला है ,वे शब्द अभी भी सजीव हैं और अपने साथ बहुत कुछ समेटे हुए हैं .हम उस सब से वंचित न हो जायँ .मुझे उन शब्दों से लगाव है या कह लीजिए आत्मीयता का अनुभव होता है ,लगता है इनकी अर्थवत्ता खो न जाए और उनके साथ हम उन सुन्दर अनुभूतियों से ,उन मनीषियों के संपर्क से कट कर अपना तारतम्य न गँवा बैठें .
उसी क्रम को स्पष्ट करने के लिए आधुनिक काल तक के उद्धरण लाई .लोग तो अभी से महादेवी और (शायद) दिनकर को भी अप्रासंगिक करार देने लगे हैं .जो मुझे ठीक नहीं लगा .(विस्तार का मुख्य कारण यह उद्धरणोंवाला फ़ालतू-सा लगता खंड है ).
पढ़ाती रही हूँ-छात्रों स्तर एक सा नहीं होता ,सब समझें इसलिए ,बात को अच्छी तरह स्पष्ट किए बिना चैन नहीं पड़ता था .वही आदत ! यहाँ भी बात को कहने में कंजूसी नहीं की .
मंच पर कविता देने के बाद मैं प्रायः उस पर पुनर्विचार करती हूँ और अक्सर परिवर्तन भी .सब कविताएं मंच के लिए होती भी नहीं -मेरा मतलब है लंबी कविताएं या ऐसी ही .मेरी बात काफ़ी-कुछ ,स्पष्ट हो गई होगी .
आप कुछ कहना चाहें तो स्वागत है .
भवदीया ,
प्रतिभा सक्सेना.

Monday, March 29, 2010

अगली बार

पार करते हुए जब जन्मान्तरों को
पहुँच जाऊँ यहीं अगली बार !
*
और सुन्दर यह धरा उस बार होगी ,
आज की यह कल्पना साकार होगी ,
यही प्यारे दृष्य ,यह कलरव खगों का
सुखद होगा रास्ता मेरे पगों का ,
राग भर मन सुरभि-चंदन -
भावना अंकित यहाँ हर बार
*
उगे होंगे नये अंकुर नए पत्ते
स्वर अधिक कुछ पगे होंगे नेह रस से !
जान लेगा बात मन की दूसरा मन ,
सँजोए नवरस महकते पुष्प के तन
चित्र-वीथी सी दिशाओं के पटों पर
जहाँ आऊँ पुनः अगली बार !
*

Friday, March 19, 2010

अक्षरा -

*
तुम प्रतिष्ठित रहो सुयश प्रदायिनी बन
हृदय में निष्ठा स्वरूप बसो निरंतर !
*
प्रभा बन सुविकीर्ण प्रतिपल नयन में हो
बन अचल विश्वास अंतर में समाओ ,
समर्पित प्रति क्षण तुम्हारे प्रति रहूँ
तुम सूक्ष्मतम अणु रूपिणी सी व्याप जाओ!
*
शक्ति बन कर समा जाओ प्राण-मन में
त्रिगुणमयि चिन्मयातीता परम सुन्दर !
*
राग में मेरे समाओ मंगला सी,
शब्द मेरे अक्षरा जीवन्त चिर तुम ,
दिव्यता बन मृत्युमय तन में रमो,
आ इन स्वरों में बसो चित् की रम्यता बन ,
*
देवि ,तुम हर रूप में बिम्बित रहो
ये वृत्तियाँ विश्राम लें लवलीन हो कर!
*

Thursday, February 11, 2010

शिकायत -

कमल जी को तीखी मिर्च का उत्तर-

पशु-पक्षी-और सभी वनस्पति हुये इकट्ठे जाकर
भगे घरों से सभी पालतू जीव-जंतु अकुला कर
बजा तालियाँ पीपल बोला शुरू करो सम्मेलन ,
जिम्मेदार हमारे दुख का दो पैरोंवाला जन
*
हरी मिर्च चट् बढ़ आई देखो अत्याचारी को ,
लाल न होने दिया रूप की खिलती चिन्गारी को
कच्चा तोड़ लिया डाली से स्वाद हेतु फिर काटा ,
झार सहन जब कर न सके तो मुझे कमल ने डाँटा
*
गन्ना बोला ,मेरा रक्त खीच कर औटाते हैं ,
फिर शक्कर बीमारी का दुख जीवन भर पातें हैं .
आदमजात दुपाया इसको कब संतोष हुआ है ,
अपना स्वार्थ न सधे अगर तो हम पर रोष हुआ है ,
*
दाता ने दी बुद्धि ,उसी के बल पर है इतराता ,
है दिमाग में खुराफ़ात . तिगनी नाच नचाता
पक्षी बड़े दुखी थे चैन न है मनुष्य के मारे ,
काटे पेड़ उजाड़ा जीवन सारे साज़ बिगाड़े .
*

Saturday, January 16, 2010

वट-कथा

मैं जाती थी वर्ष में एक बार,उस छाँह को छूने
उसके नीचे बिताये दिन फिर से जीने ,
और पूरे साल की ऊर्जा मिल जाती थी मुझे .
मनोजगत में उसकी छाँह निरंतर लिये
आगे के तीन सौ दिन निकल जाते थे
उसी ताज़गी में रच कर ,
और बाद के दिन प्रतीक्षा में उस छाँह को पाने की ।
कितने साल !
और फिर एक साल देखा वह वहाँ नहीं है .
धक् से रह गई मैं .
वह शताब्दियों पुराने पूर्वजों सा बरगद ,
उसका अस्तित्व मिटा दिया गया था .
*
वही छाँह छू बरस पर बरस
ऊपर से निकलते चले गये
मैं रहीं वहीं की वहीं
कोई अंतर नहीं पड़ा मुझे ,
लगा मैं वही हूँ ,जैसी की तैसी .
उम्र क्या बढने से रुक जाती है मन की ?
तुम साक्षी थे ,एक मात्र ,
सैकड़ों वर्षों के लंबे इतिहास के
और समीपस्थों के जीवन की
पहचान के.
तुम किसी को भूले नहीं होगे ,
मुझे तो बिल्कुल नहीं .
तुम्हीं तो थे जो पत्ते हिलाते टेर लेते थे ,
ज़रा इस बूढ़े बाबा की छाँह में
पसीना सुखा लो, गति धीमी कर लो ,
थम जाओ ज़रा .
मेरे अंदर जो घटता था तुमसे अनजाना नहीं था .

उन क्षणों के ,घटनाओं के, संवादों के
जो तुम्हारी छाँह में चलते रहे .
बहुत बहुत दिनों के बाद कुछ देर तुम्हारी छाँह पाना ,
लगता,बराबर तुम मेरे साथ हो
मेरे मनोजगत में तुम्हारी छाँह
निरंतर बनी रही लगातार
क्योंकि तुम वहाँ थे
*
सैकड़ों साल वहाँ रहे तुम
अब किसी के मार्ग की बाधा बन गये होगे
उन्होंने काट दिया ,
अब नहीं मिलेगी कभी वह छाँह ,
अब मनोजगत में तुम नहीं रहे
क्योंकि मैंने देख लिया तुम वहाँ नहीं हो
तुम एक छाँह थे ,एक आश्रय थे ,
एक आश्वस्ति थे .,एक साक्षी थे
लगता था कोई है जो तब से अब तक
मेरे साथ है मुझे जानता समझता .
ओ,महावट थे तुम मुझे छाये थे.
उस विशाल वक्षस्थल तने से सिर टिका ,
क्षण का विश्राम कैसा तापहर था
अब नहीं मिलेगा कहीं ,
कहीं भी नहीं .
*

Sunday, January 3, 2010

एक दिन

एक दिन अति शान्त मन मैं,
चली आऊँगी तुम्हारे पास .
*
और, विचलित न हो जब थिर हो सकूँ`
मौसमों से दोस्ती के बीज फिर से बो सकूँ
अभी थोड़ा भ्रम बचा ही रह गया होगा ,
उबर कर मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !
एक दिन अति सहज,आरोपण हटाकर .चली आऊंगी तुम्हारे पास
*
अभी राहें कहाँ चल कर पास आने को
रीति नीति सभी निभाने को पड़ी हैं ,
निर्णयों में देर ही होती चली जाती,
और भी कठिनाइयाँ आकर अड़ी हैं ,
अभी कहाँ निवृत्ति मेरी ,शेष हैं कुछ ऋण चुकाने को
एक दिन जब चुप न रह कर बहूँ निर्झऱ सी बिना आयास
*
मत बुलाना ,फिर कहीं
कोई विवशता टेर लेगी
टेरना मत अभी
द्विविधा लौट कर फिर घेर लेगी
रस्ते से बुला ले कोई रुकावट कहीं ,फिर जाऊँ वहीं चुपचाप
दीप की कँपती हुई लौ जल सके निर्वात ,
तभी आऊँगी तुम्हारे पास
*
एक दिन सबसे उबर लूँ ,सिर चढ़े जो दोष
उसी दिन ऐसा लगेगा अब न कोई टोक ,
बीत जाये यह विषम घड़ियाँ बड़ी हैं
तपन औ', विश्रान्ति शीतल हो कि जब अनयास .
*
कुछ समझना रह गया होगा .
कहीं कच्चापन बचा होगा .
पार हो जायें सभी व्यवधान ,
पूर्ण अपने स्वयं का संधान ,
एक दिन आँसू जमे जब,
पिघल-गल बह जायँ अपने आप !
एक दिन अति स्निग्ध औ'निष्पाप
चली आऊंगी तुम्हारे पास .
*
देह के , मन के अभी तो शेष हैं घेरे
यहाँ के व्यवहार के
बाकी अभी फेरे
कामना के साथ कितने जाल
घेरते बन व्याल .
नृत्य सी लालित्यमय बन जाय हर पदचाप
तभी आऊंगी तुम्हारे पास
*