Sunday, September 26, 2010

श्यामला

*
ईषत् श्यामवर्णी,

उदित हुईं तुम

दिव्यता से ओत-प्रोत

अतीन्द्रिय विभा से दीप्त

मेरे आगे प्रत्यक्ष .

मैं ,अनिमिष-अभिभूत-

दृष्टि की स्निग्ध किरणों से

अभिमंत्रित, आविष्ट .

कानों में मृदु-स्वर-

'क्या माँगती है, बोल ?'

*

द्विधाकुल हो उठा मन -

पल-पल बदलती दुनिया और चलती फिरती इच्छाएँ

जो कल थी आज नहीं .

जो हूँ ,आगे नहीं .

काल- जल में बहता

निरंतर बनता-बिगड़ता प्रतिबिंब -मैं ,

क्या माँगूँ ?
*
क्या माँगूँ -

सुख ,यश ,धन बल .सब बीत जाएँगे ,

परछाइयाँ, जिन्हें समझना मुश्किल ,

पकड़ना असंभव

मन के घट और रीत जाएँगे

*

क्या माँगू ,इन सर्वसमर्थ्यमयी से ?

जैसे सम्राट् अबोध ग्राम्य बालक से

अचानक पूछे ,'बोल , क्या चाहिए '?

क्या बोलेगा विमूढ़ बेचारा ,

कहाँ तक विस्तारेगा लघुता अपनी!

क्या बोलूँ मैं?

*

स्निग्ध कान्ति में डूबा ,

इन्द्रियातीत हो उठा मन, मौन .

अनायास जागा अंतर - स्वर -

'जन्म-जन्मान्तर तक

मेरी आत्मा का कल्याण करों माँ ,

तुम्हीं जानो !'

*

करुणार्द्र नयन-कोरों से थाहतीं

तुम रुकी रहीं कुछ क्षण,

मंद स्मिति आनन पर झलकी ,

'तो, मैं चलती हूँ ,पुत्री.’

*

पुत्री ?

पुत्री कहा तुमने ?

मुझे?

क्या शेष रहा अब.,

कृतार्थ मैं !
*

'बस, आश्वस्त करती रहना,

 हर विचलन में , माँ ,

कि सिर पर हाथ तुम्हारा है!'

तुम अंतर्धान हो चुकीं थीं .

*

Friday, September 3, 2010

अदम्य-

*
धरती तल में उगी  घास
यों ही अनायास ,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी  जाऊँ ,पोसी जाऊँ!
*
हर तरह से, रोकना चाहा ,.
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर  ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
*
सिर उठा चली आऊँगी ,
जहाँ तहाँ ,यहाँ -वहाँ ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
*