Friday, November 27, 2009

अग्नि-संभवा

कृष्ण,मेरे मीत
अग्नि संभव द्रौपदी मैं
खड़ी अविचल जल रही अनुताप में
उद्दीप्त पल-पल क्षुब्ध और अशान्त
तुम तपन झेलो ,न कोई और
तुम शरण मेरी, न कोई और
*
दौड़ आते तुम्हीं बारंबार
इस निर्वास- वन में
छोड़ अपना राजसुख- रनिवास ,
धीर देने बाँटने को भार मन का
प्रिय सखी के साथ !
तुम परम आत्मीय ,
मेरा हो न कोई और .
टेरता मन कह रहा
तुमसे मिले युग हो गये
ओ ,मीत मेरे !
तुम शऱण मेरी
न कोई और .
*
बंधु प्रिय मेरे ,
सभी का एक माध्यम मै.
स्वत्व मेरा कुछ नहीं .
मैं बँटी हूँ ,जुड़ूँ किससे
अधूरी हूँ मैं सभी के साथ ,
मन से रहूं किसके पास .
पति परस्पर बँधे बेबस,
एक असमंजस कि
मैं हूँ डोर.
कौन है,जो समझ ले मेरी व्यथा को ?
एक केवल तुम,
न कोई और .
तुम शऱण मेरी, न कोई और .
*
मीत
हर सामर्थ्य मेरी,बन गई उपभोग .
दाँव पर मैं ,
और कब से चल रहा यह खेल .
वे परम गंभीर,मृदु संयत .
मुखर मैं ,कटु ,असहनशील
सब स्वीकार .
किन्तु यह निर्लज्ज अत्याचार ?
और वह क्षण दुसह दारुण भयावह,
वह बीतता ही नहीं
बनता एक हाहाकार .
हो रहा अपमान औ' उपहास
पर वे सिर झुकाये साक्षी चुपचाप
मिथ्यादर्श की ले आड़.
उस सामर्थ्य को धिक्कार .
नीति धर्म,विवेक सब बेकार,
किसे अब तक सके कभी उबार?
सभी को रख दो ,सुरक्षित कर पिटारी बंद
खा जाये न चोट उनका धर्म पा कर वार!
इस विडंबन का कहाँ है पार ?
सिर्फ़ तुमने ही उबारा ,
तुम चुभन झेलो, न कोई और .
तुम शऱण मेरी, न कोई और.
*
और तुम?
जो सर्वथा ही भिन्न ,
जीवन-सहजता के मंत्र .
कौन से तुमने नियम या नीति मानी?
तोड़ सारी वर्जनायें,
एक तुमने ही
स्वयं को साक्षी कर,
मानवी गरिमा न हो खंडित यहाँ ,
सब रीति मर्यादा बदल दी .
और जीवन भर तुम्हीं ने
व्यर्थ के प्रतिबंध तोड़े,
छलों के अनुबंध तोड़े,
सहज हो कर बहे युग-धारा
कि आरोपित सभी पाखंड तोड़े .
एक ही संबंध तुमसे
बस नहीं कुछ और
तुम शऱण मेरी, न कोई और.
*
विगत और भविष्य तुम निर्बाध
विषम ,अँधे क्षणों में लो साध.
सांत्वना के कुछ सहज उद्गार
जब निराशा हो चरम तब तुम खड़े हो साथ!
मीत मेरे,
बस यही विश्वास
नहीं दैहिक कामना कोई हमारे बीच, और कुछ भी नहीं
जो कुछ और .
तुम शऱण मेरी, न कोई और
*
शब्द सीमित ,
अर्थ का विस्तार
तुम तक पहुँच जायेगा .
अजानी दूरियों को लाँघ,
मेरा मौन भी कह बहुत जायेगा .
यही दृढ़ संबंध जो जोड़े हुये है .
और कुछ भी नहीं
अपने बीच .
तुम्हीं से उन्मुख न कोई और
तुम शरण मेरी, न कोई और
*
शब्द औ'संवेदना ही,
और निष्कृति भी तुम्हीं से.
बसनहीं कुछ और .
तुम परम आत्मीय,सतत समीप ,
तुम तपन झेलो,न कोई और.
तुम शरण मेरी, न कोई और !

Sunday, November 15, 2009

अधूरी तपस्या तुम्हें माँगती है !

शपथ है तुम्हें इस विरागी हृदय की
अधूरी तपस्या तुम्हें माँगती है !
*
न जीवन रहेगा ,न आँसू बचेंगे ,
न पिर-फिर यही राग चलते रहेंगे ,
न मिट्टी इसी रूप में रह सकेगी ,
सदा ही न ये प्राण बहले रहेंगे !
*
मिटी आश ,चिन्ता न इसकी मुझे ,
पर न मिट पा सकेंगी अभी साधनाये ,
ढलेगा दिवस और रजनी ढलेगी ,
चलेंगी अभी मौन आराधनाये !
*
स्वयं ही तुम्हें पास आना पड़ेगा
कि ये जल रही प्राण सी आरती है !
*
अभी वेदना श्वास को बाँधती ,
पर रहेगा सदा ही न अस्तित्व मेरा ,
जनम-मौत खींचे लिये चल रहेंहैं ,
मिलोगा कहीं तो मुझे ठौर मेरा !
*
अरे, पत्थरों से भले तुम रहो ,
पर कभी आवरण यह हटाना पड़ेगा ,
कभी मृत्तिका में खिलेंगे सुमन वह,
कि जिनको तुम्हें सिर चढ़ाना पड़ेगा !
*
अरे देवता ,तुम न पत्थर रहोगे
कि जब तक यहां भावना जागती है !
*

Thursday, November 12, 2009

आये न अब लौं कहार

आये न अब लौं कहार, हमार डुलिया कइस उठिबे !
माथे पे बिंदिया, नयन भरो कजरा
रुच के सजाय देओ फूलन के गजरा
टटकी चटक लाल चूनर उढ़ावो ,
केहि दिसि पी घर मारग दिखावो
गैलो न मालुम पहुँचिबे कइस,
हिया लागि चिन्ता हमार !
पिया घर कइस जइबे !
सुध न रहे कजरा ,न गजरा ,न चुरियाँ ,
रख जाई हियनै ई पहिरी चुनरिया !
डोली भी अइबे ,कहार दौरि अइहैं ,
काहे तू हैरान , पिया संगै लइ जइहैं !
सारी विवस्था ,खुदै होइ जाई ,
आवहिंगे जब वे दुआर !
सबै देखित रहि जइबे !