Saturday, January 16, 2010

वट-कथा

मैं जाती थी वर्ष में एक बार,उस छाँह को छूने
उसके नीचे बिताये दिन फिर से जीने ,
और पूरे साल की ऊर्जा मिल जाती थी मुझे .
मनोजगत में उसकी छाँह निरंतर लिये
आगे के तीन सौ दिन निकल जाते थे
उसी ताज़गी में रच कर ,
और बाद के दिन प्रतीक्षा में उस छाँह को पाने की ।
कितने साल !
और फिर एक साल देखा वह वहाँ नहीं है .
धक् से रह गई मैं .
वह शताब्दियों पुराने पूर्वजों सा बरगद ,
उसका अस्तित्व मिटा दिया गया था .
*
वही छाँह छू बरस पर बरस
ऊपर से निकलते चले गये
मैं रहीं वहीं की वहीं
कोई अंतर नहीं पड़ा मुझे ,
लगा मैं वही हूँ ,जैसी की तैसी .
उम्र क्या बढने से रुक जाती है मन की ?
तुम साक्षी थे ,एक मात्र ,
सैकड़ों वर्षों के लंबे इतिहास के
और समीपस्थों के जीवन की
पहचान के.
तुम किसी को भूले नहीं होगे ,
मुझे तो बिल्कुल नहीं .
तुम्हीं तो थे जो पत्ते हिलाते टेर लेते थे ,
ज़रा इस बूढ़े बाबा की छाँह में
पसीना सुखा लो, गति धीमी कर लो ,
थम जाओ ज़रा .
मेरे अंदर जो घटता था तुमसे अनजाना नहीं था .

उन क्षणों के ,घटनाओं के, संवादों के
जो तुम्हारी छाँह में चलते रहे .
बहुत बहुत दिनों के बाद कुछ देर तुम्हारी छाँह पाना ,
लगता,बराबर तुम मेरे साथ हो
मेरे मनोजगत में तुम्हारी छाँह
निरंतर बनी रही लगातार
क्योंकि तुम वहाँ थे
*
सैकड़ों साल वहाँ रहे तुम
अब किसी के मार्ग की बाधा बन गये होगे
उन्होंने काट दिया ,
अब नहीं मिलेगी कभी वह छाँह ,
अब मनोजगत में तुम नहीं रहे
क्योंकि मैंने देख लिया तुम वहाँ नहीं हो
तुम एक छाँह थे ,एक आश्रय थे ,
एक आश्वस्ति थे .,एक साक्षी थे
लगता था कोई है जो तब से अब तक
मेरे साथ है मुझे जानता समझता .
ओ,महावट थे तुम मुझे छाये थे.
उस विशाल वक्षस्थल तने से सिर टिका ,
क्षण का विश्राम कैसा तापहर था
अब नहीं मिलेगा कहीं ,
कहीं भी नहीं .
*

Sunday, January 3, 2010

एक दिन

एक दिन अति शान्त मन मैं,
चली आऊँगी तुम्हारे पास .
*
और, विचलित न हो जब थिर हो सकूँ`
मौसमों से दोस्ती के बीज फिर से बो सकूँ
अभी थोड़ा भ्रम बचा ही रह गया होगा ,
उबर कर मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !
एक दिन अति सहज,आरोपण हटाकर .चली आऊंगी तुम्हारे पास
*
अभी राहें कहाँ चल कर पास आने को
रीति नीति सभी निभाने को पड़ी हैं ,
निर्णयों में देर ही होती चली जाती,
और भी कठिनाइयाँ आकर अड़ी हैं ,
अभी कहाँ निवृत्ति मेरी ,शेष हैं कुछ ऋण चुकाने को
एक दिन जब चुप न रह कर बहूँ निर्झऱ सी बिना आयास
*
मत बुलाना ,फिर कहीं
कोई विवशता टेर लेगी
टेरना मत अभी
द्विविधा लौट कर फिर घेर लेगी
रस्ते से बुला ले कोई रुकावट कहीं ,फिर जाऊँ वहीं चुपचाप
दीप की कँपती हुई लौ जल सके निर्वात ,
तभी आऊँगी तुम्हारे पास
*
एक दिन सबसे उबर लूँ ,सिर चढ़े जो दोष
उसी दिन ऐसा लगेगा अब न कोई टोक ,
बीत जाये यह विषम घड़ियाँ बड़ी हैं
तपन औ', विश्रान्ति शीतल हो कि जब अनयास .
*
कुछ समझना रह गया होगा .
कहीं कच्चापन बचा होगा .
पार हो जायें सभी व्यवधान ,
पूर्ण अपने स्वयं का संधान ,
एक दिन आँसू जमे जब,
पिघल-गल बह जायँ अपने आप !
एक दिन अति स्निग्ध औ'निष्पाप
चली आऊंगी तुम्हारे पास .
*
देह के , मन के अभी तो शेष हैं घेरे
यहाँ के व्यवहार के
बाकी अभी फेरे
कामना के साथ कितने जाल
घेरते बन व्याल .
नृत्य सी लालित्यमय बन जाय हर पदचाप
तभी आऊंगी तुम्हारे पास
*