Sunday, October 25, 2009

ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना

ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना
ओ चाँद जरा धीरे-धीरे
कोई शरमीली साध न बाकी रह जाये !
*
किरणों का जाल न फेंको अभी समय है ,
जो स्वप्न खिल रहे ,वे कुम्हला जायेंगे
ये जिनके प्रथम मिलन की मधु बेला है ,
हँस दोगे तो सचमुच शरमा जायेंगे !
प्रिय की अनन्त मनुहारों से
जो घूँघट अभी खुला है ,तुम झाँक न लेना
अभी प्रणय का पहला फूल खिला है !
स्वप्निल नयनों को अभी न आन जगाना ,
कानो में प्रिय की बात न आधी रह जाये !
*
पुण्यों के ठेकेदार अभी पहरा देते ,
ये क्योंकि रोशनी अभी उन्हें है अनचीन्हीं !
उनके पापों को ये अँधेर छिपा लेगा ,
जिनके नयनो मे भरी हुई है रंगीनी !
जीवन के कुछ भटके राही लेते होंगे ,
विश्राम कहीं तरुओं के नीचे छाया में ,
है अभी जागने की न यहाँ उनकी बारी ,
खो लेने दो कुछ और स्वप्न की माया में ,
झँप जाने दो चिर -तृषित विश्व की पलकों को ,
मानवता का यह पाप ढँका ही रह जाये !
*
जिनकी फूटी किस्मत में सुख की नींद नहीं ,
आँसू भीगी पलकों को लग जाने देना !
फिर तो काँटे कंकड़ उनके ही लिये बने ,
पर अभी और कुछ देर बहल जाने देना !
यौवन आतप से पहले जिन कंकालों पर
संध्या की गहरी मौन छाँह घिर आती है !
इस अँधियारे में उन्हें ढँका रह जाने दो ,
जिनके तन पर चिन्दी भी आज न बाकी है !
सडकों पर जो कौमार्य पडा है लावारिस ,
ऐसा न हो कि कुछ लाज न बाकी रह जाये !
*
ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना ...!

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