Thursday, July 29, 2010

मैं तुम्हारी भैरवी हूँ

उठो भैरव ,मैं तुम्हारी भैरवी हूँ !
*
यह जगत जो कर्म का पर्याय होता ,
और जो कि प्रबुद्ध जीवन-मर्म का समवाय होता ,
रह गया बस कुमति की औ'दानवों की विकट लीला ,
औ त्रिशूली, भूधरों को कर विखंडित .
इस धरा की साँस को नव वायु देने
उतर आओ धरा पर मैं टेरती हूँ !
*
ये बिके-से लोग ,कैसे साथ देंगे ?
अकर्मण्य कुतर्क ही हिस्से पड़ेंगे
यहाँ सबको सिर्फ़ अपनी ही पड़ी है .
पशु नितान्त मदान्ध सारे खूँदते धरती रहेंगे
चले आओ तुम प्रलय का नाद भरते ,
कंठ हित नर-मुंडमाल लिए खड़ी हूँ !
*
अरे विषपायी, उगल दो कंठ का विष ,
भस्म हो जाएं सभी कल्मष यहाँ के ,
गंग की धारा जटाओं में समा लो ,
भेज दो दिवलोक में फिर सिर चढ़ा के
घूमता गोला धरा का जिस धुरी पर
अंतरिक्षों में घुमाकर फेंक डालो !
रच दिया परिशिष्ट ,उपसंहार कर दो ,
चलो रुद्र कराल बन तुम काल, मैं प्रलयंकरी हूँ .
*
आज आँसू नहीं बस अंगार मुझ में
एक भीषण युद्ध की टंकार स्वर में
नहीं संभव जहाँ सहज सरल स्वभाव जीना
जब कृतघ्नों की हुई हो चरम सीमा
व्यर्थ हों वरदान कुत्सा से विदूषित
वार उन का ही उन्हें कर जाय भस्मित
रक्तबीजों के लिए विस्तार जिह्वा मैं खड़ी हूँ !
उठो भैरव ,मैं तुम्हारी भैरवी हूँ !
*

Friday, July 16, 2010

समग्र शान्ति के लिए

समग्र शान्ति के लिए हिमालया पुकारता !
कि जीव मात्र के लिए धरा कुटुम्ब ही रहे ,
वनों,समुद्र पर्वतों में शंख-ध्वनि गुँजारता .
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अलग न भूमि खंड ये ,अखंड है वसुन्धरा ,
हृदय विशाल हो मिलन समान मित्र-भाव का ,
न स्वार्थ साधना ,न हो प्रवंचना ,विडंबना ,
मिलो तो प्यार से मिलो ,समुद्र मार्ग दे रहा !
नई सदी मनुष्यता के पाठ बाँचती रहे ,
नवीन युग प्रवेश-द्वार में खड़ा निहारता !
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ये वोल्गा .ये हाँगहो .फ़रात ,नील ,ज़ेम्बसी ,
धरा को बाँह में भरे ये ऊष्ण-शीत बंध भी,
गगन,समीर,जल.अनल ,सुदूर अंतरिक्ष तक ,
अखंड शान्ति व्याप्त हो विकास पथ सँवारती !
सिहर रही अमेरिका के राकियों की शृंखला
अमेज़नी तटों का अंधकार दीप्ति माँगता !
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ज़हर न खेत में उगे ,पुकारता है दारुवन,
उदास हर कली हुई ,चले न बारुदी पवन .
कि रंग-भेद ,नस्ल-धेद,पंथ-भेद अब न हों ,
मदान्ध द्वेष भस्म कर न दे कहीं सभी सपन
धुआँ-धुआं हुआ पवन गुबार हिमित द्वीप के,
सुदूर पूर्व में खड़ा हुआ फ़ुज़ी फुँकारता!
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कि गंग सिंधु,ब्रह्मपुत्र,नर्मदा पुकारती ,
पुकारता है शोण नद ,कि टेरती महानदी ,
अमोघ शान्ति-मंत्र--पाठ सृष्टि को सुना रही
समुद्र संधि पर अड़ी खड़ी प्रबुद्ध भारती
समृद्ध ऋद्धि-सिद्धि से धरा बने मनोरमा,
मनुष्य की मनुष्य से बनी रहे समानता !
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