Monday, December 28, 2009

अरण्य-मन

*
अब तो महाभारत व्यतीत हुआ!
छोड़ गया और भी अकेली
जो समझा धोखा था ,
बची सिर्फ़ थकन और
पछतावे भरा मन .
झूठ औऱ सच तुम्हें अर्पण !
कहाँ ले जाऊँ पर अरण्य-मन.
*
बदल गया सारा कुछ,
आँख खोल
देखती हूँ यत्र-तत्र,
शून्य सा बड़ा विचित्र !
अंतर का घट रीतता गया.
ज़िन्दगी का दाँव हर बार
कुछ और तिक्त कर गया
जाते जाते पे महाभारत ,
सारे ही अर्थों को बदल गया
*
द्रौपदी और भी अकेली है ,
अपने किसी निविड़ एकान्त में .
सूर्य-पुत्र
दोष सिर्फ़ मेरा था ,
कर्ण ,क्षमा, व्यर्थ रोष मेरा था .
एक भूल ज़िन्दगी भर फली
बार बार मैं गई छली.
*
सभी बंधु बाँट लें .
पर कहाँ ?
प्रथम कौन्तेय , तुम्हीं सर्व प्रथम मेरे थे .
सारे भ्रम टूट गये ,
जीवन से सारे मान झूठ गये
सारी व्यवस्था को ,
झूठ अन्याय ,सदा घेरे थे
*
रहीं जहाँ सदा दुरभिसंधियाँ ,
देव का प्रसाद कलंकित हुआ .
सूर्यपुत्र और अग्नि संभवा
व्यर्थ गई रूप-अनुरूपता .
पा न सके पूर्णता
बार-बार चुभी एक फाँस सी
युद्ध हेतु अस्त्र मात्र रह गये
चिन्गियाँ बिखेर ताप झेलते
बार-बार जो कि टकरा गये .
*
और हर बार हुई वंचना.
प्राप्य जो रहा वही नहीं मिला
शूल सा चुभा कहीं करक रहा
सिर्फ़ आक्रोश रोष ही जिया !
अवश क्रोध और विफल कामना
अग्नि संभवा सुलगती रही
सूर्यपुत्र ने सदा तिमिर पिया
*
द्रौपदी और भी अकेली है ,
कितनी भूलों का ,अपराधों का बोझ लिये
कितने अपमानों के दंश सहे ,
किसके काँधे सिर धरे ,सभी शामिल थे?
कितना और झेले और कुछ न कहे !
*
कृष्ण ,एक तुम ही निस्संग रहे ,
शक्ति यही ,भक्ति कहो भले विरक्ति कहो ,
मोह कहो द्रोह कहो ,
एक आसरा कहो या चाहे अनुरक्ति कहो
रहो छाँह दिये एक मात्र परितृप्ति रहो ,
बस सुनो तुम .
और डूब जाये
तुम्हीं में अरण्य मन!


*

बाल- गीत ; नीलमघाटी

*
इस पर्वत के पार एक नीलमवाली घाटी है ,
परियां आती रोज जहां पर संध्या और सकारे !
*
आज चलो इस कोलाहल से दूर प्रकृति से मिलने
वन फूलों के साथ खेलने और खुशी से खिलने
स्वच्छ वायु ,निर्मल जलधारा .हरे-भरे फूले वन ,
कलरव कर ते रंगरंग के पक्षी रूप सँवारे !
*
पशु-पक्षी ये जीव हमारी दुनिया के सहभागी ,
जो अधिकार हमें धरती पर वैसा ही उनका भी
बुद्धि मिली है सबके लिये विचार करें अपना सा
एक शर्त बस -जो भी आये मन में आदर धारे
*
परियाँ वहीं खेलने आतीं जहाँ प्यार बिखरा हो ,
जड़-चेतन के लिये मधुर सद्भाव जहाँ निखरा हो
धरती की सुन्दर रचना सम-भाव सभी को धारे
और शपथ लो यही कि इसमें माँ का रूप निहारें !
*

सारा आकाश

*
बस पंख सलामत रहें
सारा आकाश तुम्हारा
कोई घेरा .
काफ़ी नहीं तुम्हारे लिये
न सीमित करती कोई कारा .
पंख जहाँ ले जायँ ,
वहीं पर लिखा दे नाम तुम्हारा .
नाम जो मेरे स्व का विस्तार
दिया तुम्हें मेरी अस्मिता ने
जहाँ तक तुम्हारी पहुँच ,
व्यप्ति है मेरी !
समर्थ रहें पंख ,
स्वतंत्र ,सचेत ,निर्बाध !
और सारा आकाश तुम्हारा .

Wednesday, December 23, 2009

जाते बरस प्रणाम

*
महाकाल की एक सांस तुम ,
एक चक्र बीता !
क्या दे सके तुम्हें हम ,
इसका कौन करे लेखा ?
इतने काल खंड का जो कुछ ,
देव , तुम्हारे नाम !
*
शेष रहा जो क्षमा करो ,
दे आशिष चलती बार .
जो तुमने दी छाँह ,
उसी का स्वीकारो आभार !
आशा -आकाँक्षायें ले
तुम आये गठरी बाँध .
जितना पात्र हमारा था .
तुम डाल चले निष्काम .
चलते बरस ,प्रणाम !
-प्रतिभा.

Monday, December 21, 2009

आते ही क्यों

स्वीकारकिया होता तो हम आते ही क्यों ?
इस भाँति पराये देश ढूँढने को साधन
अधिकार मिला होता तो बिलगाते ही क्यों!
*
सीढी बनना स्वीकार नहीं कर पाये हम,
सिर चढे रहे हम पर जो थे सुवधाभोगी !
सपने साकार कर सकें संभव हो न सका
जोगडा बना रह जाता यह घरका जोगी ,
सागर के तट पर एक रेत का कण भर थे
नभ गंगा का तारा बनने को निकल पडे !
सामर्थ्य सिद्ध कर देने का अवसर मिलता
मानवगरिमा से पूर्ण सहज जीवन मिलता ,
इस चकाचौंध के बीच डूबने आते क्यों !
*
बेबसी यही थी बाधायें हो गईं नियति,
जब भी आगे बढने को कोई कदम उठा ,
रोडे अटके ,अवरोधों ने बढ रोकी गति
सारे उत्साहों पर पानी न फिरा होता
अवसाद निराशा से बचने का पथ मिलता
आगे बढने के लये पाँव आकुल थे जो ,
थोडी भी सुविधा नहीं विषम सी द्विविधायें ,
अपने शैशव,अपने यौवन की गाँव-गली,
अपनी माटी को छोड विदेश बसाते क्यों
*
कितनी रुकावटें ,रोडे औ व्यवधान द्वेष
कुछ करने की थी बडी तमन्नायें मन में,
कोई भी सच को सुननेवाला मिला नहीं
अवसर पाया हम खाली हाथ चले आये
अपनी मिट्टी का मोह खींचता बार बार ,
ऊँची ऊँची बातें केवल कहने भर की ,
जाना समझा तो फिर हम नहीं बहल पाये
समझौतोंसे हर पल उद्वेलित हृदय लिये
इन आकाशों में पंख खोलने आते क्यों
*
ईमान बिका है भ्रष्टों के बाजारों में,
निष्ठायें लोटीं कूटनीति के चरण तले
ऊँचे पव्वों के दाँव जीतते हर अवसर ,
हर जगह ढोल में पोल,करे किसकी प्रतीति
अपने हित हेतु बदल जाते हैं मानदंड ,
संस्कारहीनता की संस्कृति पनपी ऐसी
नेता हैं भाँड छिछोर, भँडैती राज-नीति ,
निर्लज्ज कुपढ़ निर्धारित करते रीति नीति ,
उनकी लाठी हाँके ले जाती शासन को
जनता जनार्दन उदासीन ,जो हो सो हो
मान्यता बुद्धि को मिलती लाठी से ऊपर ,
तो फिर बाहरवालों के काज सुहाते क्यों !
*
'वसुधा कुटुंब' का पाठ हृदय में धार लिया,
अपनी धरती का ऋण हमने स्वीकार लिया
अवसर प्रयास को मिला दक्षिणा देने का ,
सौभाग्य समझ आगे बढ़ हाथों हाथ लिया
अपनी संस्कृति के पहरेदार यहाँ है हम
मन से अपन स्वजनों से दूर कहां हैं हम
कुछ समझे कुछ कर सके अन्यथा सचमुच हम
इन अनजाने आकाशों पर छा जाते क्यों
*

Friday, December 11, 2009

दो सांसें क्या दे दीं

दो साँसें क्या दे दीं ,तन बिक गया गुलामी में ,
आभारों का भार ,जाल हर ओर बिछा डाला !
किसने माँगा था ,तुम जीने का बंधन दे दो ,
किसने हाथ पसारा था ,दारुण मंथन दे दो !
काहे को दे दिया कठिन एहसानों का बोझा ,
कौन माँगने गया कि तुम इतना क्रन्दन दे दो !
दो साँसें क्या दे दीं कुछ भी शेष नहीं छोडा ,
सभी कामनाओं को पहरे में यों कर डाला !
आज पहाड हो गया ऋण जो लगता था राी ,
लिया किन्तु चढ गई वसूली में पाईपाई !
ऐसा निर्मम मिला महाजन सबकुछ ले कर भी ,
कहता पूरी नहीं हुई अब तक भी भर पाई !
बार बार वंचित करने की धमकी दे दे कर ,
मेरे मन को भी इतना कमजोर बना डाला !
अब तो आगे और कामना कोई शेष, नहीं ,
दर्पण में दिखता जो लगता अपना वेश नहीं !
इतनी गैर हो गई हूँ अपने ही से अब तो ,
तुम न दिखो तो लगता अपना कोई देश नहीं !
आँसू के बदले दे डालीं स्वर की मालायें ,
इतना बोझ दिया तुमने यों बेबस कर डाला !