Wednesday, October 21, 2009

क्या कभी ऐसा न होगा !

कल्पनामय आज तो जीवन बना
पर जिन्दगीमय कल्पना हो क्या कभी ऐसा न होगा !
एक पग आगे बढा तो शूल पथ के मुसकराये,
एक क्षण पलगें खुलीं तो हो गये सपने पराये ,
एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा ,
एक ही पथ में समूचे विश्व के अभिशाप छाये !
स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें ,
चेतनामय स्वप्न हों ये ,क्या कभी ऐसा न होगा !
एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया ,
एक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया ,
एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा ,
जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया !
इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !
चाह से है राह कितनी दूर भी मैने न पूछा ,
क्या कभी मँझधार को भी कूल मिलता है न बूझा ,
किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में ,
छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका !
ये भटकते ही रहे उद्ध्रान्त से मेरे चरण
पर भ्रान्ति में ही बन चले पथ क्या कभी ऐसा न होगा !
अब कभी बरसात रोती कभी मधुऋतु मुस्कराती ,
कभी झरती आग नभ से या सिहरती शीत आती ,
सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्गी का ,
किन्तु मैं रुकने न पाती ,किन्तु मैं जाने न पाती १
आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में
भूल कर भी मैं स्नयं को पा सकूँ ऐसा न होगा !

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