Thursday, October 8, 2009

तीन बन्दर
आँख,कान और मुँह बंद किये,
बचते-भागते आ बैठे ड्राइँग रूम के अन्दर,
ये तीन बन्दर !
बैठे रहेंगे -
निश्चिन्त,आदर्श,परम अहिंसावादी,
यथार्थ से आँखें मूँदे ,महात्मा बने,
कि हम नहीं ऐसे
सारी दुनिया रहे चाहे जैसे !
बुराइयों से आँखें मूँद ,
एकदम चुप रहो,
बंद रखो कान ,
जो रहा है होने दो ,
हमें क्या ?
फैलती रहें अनीतियाँ ,अमर बेल की तरह
छल्ले फँसाती शाखा-प्रशाखाओं में बिना किसी अवरोध के !
सच के कँटीले रास्ते से भाग ,
यहाँ बैठे रहें ,अंध, मूक,बधिर बने,
गज़ब का संयम ओढ़े ,
सबसे तटस्थ,निर्लिप्त !
इस कमरे के अंदर ;
परम संत बने आत्ममुग्ध ,
ये तीन बंदर !
युग की महागाथा मे
लिखे होंगे सबसे ऊपर इनके नाम ,
हथियार छोड़ भागनेवालों में !
क्योंकि इस देश और इस काल में
सर्वग्रासी मि्थ्यादर्शों के बीच ,
परम संतोष से
जिये जा रहे हैं
आँख,कान और मुँह बंद कर ,
ये तीन बंदर !
(कुछ हल्का-फुल्का)
आदमी का दिमाग़ --
रेस्त्राँ मे गए, मँगाया मुर्ग ,मटन ,करी ,
शर्त यही थी कि स्वाद घर जैसा चाहिये !
घर मे जब होते हमेशा यही चाहते वे
ऐसा कुछ बनाइये रेस्त्राँ का स्वाद लाइये !
*
एक और बन्धु हैं जो अपनी घरवाली से
चाहते हैं चोंचले बाज़ारवाली की तरह ,
और बाहरवाली से चाह सिर्फ़ एक उन्हे
एक-निष्ठ बनी रहो घरवाली की तरह !
*
बच्चे थे तो चाहते थे हाय , क्यों न बड़े हुए ,
और अब बड़े हैं तो बच्चा बनना चाहते !
भारत मे रहते , अमेरिका के गुण गाते
अमरीका मे रहते तो भारत बखानते !
*
बेचारा विधाता सिर पकड़ के बैठ गया ,
मेरा किया कुछ भी इसे रास नहीं आता है !
काहे को दिमाग़ मैने दिया इस आदमी को ,
पाता है मुझी से और मुझी पे ग़ुर्राता है !
- प्रतिभा सक्सेना .

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