Tuesday, May 11, 2010

जन्म

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यवनिकाओं खिंचे रहस्यलोक में
ढल रहीं अजानी आकृति
की निरंतर उठा-पटक ,
जीवन खींचता
विकसता अंकुर
कितनी भूमिकाओं का निर्वाह एक साथ
नए जन्म की पूर्व-पीठिका .
*
कितने विषम होते हैं
जन्म के क्षण
रक्त और स्वेद की कीच
दुसह वेदना ,
धरती फोड़ बाहर आने को आकुल अंकुर
और फूटने की पीड़ा से व्याकुल धरती !
*
पीड़ा की नीली लहरें
झटके दे दे कर मरोड़ती ,
तीक्ष्ण नखों से खरोंच डालती हैं तन
बार-बार प्राणों को खींचती -सी !
फूँकने में नए प्राण ,
मृत्यु को भोगती
जननी की श्वासें श्लथ ,
लथपथ .
*
देख कर आँचल का फूल
सारी पीड़ाएँ भूल
नेह-पगी अमिय-धार से सींचती,
सहज प्रसन्न .परिपूर्ण ,आत्म-तुष्ट
जैसे कोई साखी या ऋचा
प्रकृति के छंद में जाग उठे !
*

Thursday, May 6, 2010

क्यों ?

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मेरे लिए कहीं निवृत्ति है
बार-बार बिखरता है जो सपना
कहीं घर है मेरा अपना ?
कुछ छूट पाने का अवसर है या
अपेक्षाएँ पूरी किए जाना यही नियति है ?
सब कुछ निभाए जाना क्या सहज प्रकृति है ?
कुछ चाहना ,
या जीवन को अपनी तरह थाहना ,
गुनाह है मेरा ?
कहाँ मुक्ति है ,
वानप्रस्थ या सन्यास ,
मुझे क्यों वर्जित है ?
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Sunday, May 2, 2010

जरा जल्दी आना

ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
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आ रही याद जाने कितनी उस आँगन की ,
क्या पता कहीं कुछ शेष रह गई हो डोरी .
अब नए रंग में रँगे हुए अपने घर की ,
उन कमरों की जिनमें अबाध गति थी मेरी ,

अपनी आँखों से एक बार जाकर देखूँ
अनुमानों से संभव न रहा अब बहलाना !
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शायद कोई भूले-भटके ही आजाए
आपा-धापी में स्नेहिल नाते रीत गए
जो बिखर गए टूटी माला के मनकों से ,
उनको समेटने दिन कब के बीत गए .
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इस बार बुलाने को खत ही काफ़ी होगा ,
मुश्किल लगता है पूरा बरस बिता पाना !
ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
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