Wednesday, October 21, 2009

तुमने केवल बाहर देखा !

तुमने केवल बाहर देखा ,काश हृदय में झाँका होता !
*
तुमने देखा मस्त हिलोंरों भरा सिन्धु का उमडा यौवन ,
कुमने देखा हिम किरीट से ढँकीहुई पर्वत की चोटी ,
पर बहार से भरे दिनों में बौरी आकुल अमराई से ,
तेरे अंतर से कोकिल की कूक कभी टकराई होती ,
तब अव्यक्त उस मधुता का तीखापन तुम अनुभव कर पाते ,
चाहे गहराई से तुमने उसा मोल न आँका होता !
*
जलते देखे दीप हजारों ,जिनसे कुहू बले उजियाली ,
देखी होगी ऊँचे-ऊँचे महलों में मनती दीवाली ,
झोपडियों की अँधियारी में शायद देक नहीं पाते हो
गहन अमाँ का कफन ओढ कर पडी जहाँ जीवन की लाली !
तुमने गिरती मानवता का देखा होता काश तमाशा ,
जिसकी साँसों का चलना भी किसी नयन का काँटा होता !
*
इतिहासों के पृष्ठ पलट कर ,देखा सम्राटों का वैभव ,
आँख मूँद कर हार जीत की बोली सुन ली होगी तुमने ,
पर देखो जन-जीवन को क्या आँख खोल कर देख सकोगे ,
कैसे अब इन्सान चल रहा अपने वर्तमान के पथ में !
अपनी न्याय तुला पर बीती सदियों को तो तोल चुके तुम ,
काश एक ही बार स्वयं के युग को भी कुछ जाँचा होता !
*
दुनिया की सडकों पर चलते तुमको शायद ये न पता हो ,
नैनों की गंगा -यमुना के तट पर कितने ताज अधूरे ,
काश ,जानते ,यहाँ मनुज का खून-पसीना भी बिक जाता ,
टुकडों की छीना-झपटी में ,जीने को भी दाम न पूरे !
काश जानते आज यहाँ ,मानवता बिकती ,लुटती ,पिटती
चाहे उसकी लूटमार तुमको भी एक तमाशा होता ! ,
*
तुमने देखा मस्त हिलोंरों भरा सिन्धु का उमडा यौवन ,
कुमने देखा हिम किरीट से ढँकीहुई पर्वत की चोटी ,
पर बहार से भरे दिनों में बौरी आकुल अमराई से ,
तेरे अंतर से कोकिल की कूक कभी टकराई होती ,
तब अव्यक्त उस मधुता का तीखापन तुम अनुभव कर पाते ,
चाहे गहराई से तुमने उसा मोल न आँका होता !
*
जलते देखे दीप हजारों ,जिनसे कुहू बने उजियाली ,
देखी होगी ऊँचे-ऊँचे महलों में मनती दीवाली ,
झोपडियों की अँधियारी में शायद देक नहीं पाते हो
गहन अमाँ का कफन ओढ कर पडी जहाँ जीवन की लाली !
तुमने गिरती मानवता का देखा होता काश तमाशा ,
जिसकी साँसों का चलना भी किसी नयन का काँटा होता !
*
इतिहासों के पृष्ठ पलट कर ,देखा सम्राटों का वैभव ,
आँख मूँद कर हार जीत की बोली सुन ली होगी तुमने ,
पर देखो जन-जीवन को क्या आँख खोल कर देख सकोगे ,
कैसे अब इन्सान चल रहा अपने वर्तमान के पथ में !
अपनी न्याय तुला पर बीती सदियों को तो तोल चुके तुम ,
काश एक ही बार स्वयं के युग को भी कुछ जाँचा होता !
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दुनिया की सडकों पर चलते तुमको शायद ये न पता हो ,
नैनों की गंगा -यमुना के तट पर कितने ताज अधूरे ,
काश ,जानते ,यहाँ मनुज का खून-पसीना भी बिक जाता ,
टुकडों की छीना-झपटी में ,जीने को भी दाम न पूरे !
काश जानते आज यहाँ ,मानवता बिकती ,लुटती ,पिटती
चाहे उसकी लूटमार तुमको भी एक तमाशा होता !
तुमने केवल बाहर देखा ,काश हृदय में झाँका होता !
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