Wednesday, October 28, 2009

पारदर्शी

­शब्द मत सानो ,
मनोरोगों में दूषण में,
दुबके विकारों से अर्थ-जाल पूरो क्यों!
जमा हुआ मैल साबुन पानी से धुलता है,
शब्दों को कुंठा- कणों में डुबाना क्यों ?
चाहे नहाया ना हो
क्रीम लगा ,
सेन्ट छिडक ,शोभन बन दर्पण के सामने
अपना ही रूप मुस्कान बन जायेगा !
उज्ज्वल ,उदार और बोलते-से
शब्दों का रूप -रंग खिल कर
कुछ और निखर आयेगा !
*
मन की अरुचियों या कुण्ठा गिरावटें ,
शब्द पिचकारियों मे भर क्यों उलीचना !
शब्दों मे चिपके अणु बड़े संक्रामक हैं,
हवा के साथ -साथ दूर तक जायेंगे

अनुभव, जो पाये है
उगलो मत,पचने दो !
कच्चापन लपटों की आँचों में सिंकने दो,
रस बन कर बसने दो!
नये अनुभावों से अपने को रचने दो !
वाणी को तपने दो !

मानस की लहरों मे डूबें, गहराईयों मे
घुलें-धुलें ,स्वच्छ और
पार दर्शी शब्दों मे
जो भी कहोगे वो अनंत बन जायेगा !

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