Sunday, October 11, 2009

ओ मेरे चिर-अंतर्यामी

कहीं शान्त तरु की छाया में बैठे होगे आसन मारे ,
मूँदे नैन ,शान्त औ'निश्चल ,गरल कंठ ,शशि माथे धारे ,
और जटाओं से झर-झऱ कर बहती हो गंगा की धारा,
मलय-पवन हिम-कण से युत हो करता हो अभिषेक तुम्हारा!
ऐसा रूप तुम्हारा पावन ,ओ मेरे चिर-अंतर्यामी ,
और यहाँ पर घुट-घुट कर मैं जीवन भरती रहूँ बिचारी !
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण औ कहाँ जनम की भटकी हारी !
- प्रतिभा.

No comments:

Post a Comment