Sunday, April 25, 2010

अपना आँगन

*
हम आज बिदाई कैसे दें ,क्या कहें तुम्हें ,मन में जो है वे बोल न मुख पर आते हैं ,
हैं शब्द बड़े लाचार आज ये समझ लिया उमड़े बादल बिन बरसे भी रह जाते है .
ओ,मीत ,ज़िन्दगी की ये राहें ऐसी हैं,कोई चाहे भी तो रुकता है कौन यहाँ ,
हम आज यहाँ जिस कोलाहल के बीच खड़े ,कल सूना होगा और चतुर्दिक् मौन यहाँ .
*
हँस-खेल नजाने कितने दिन यों बीत गए इतने वर्षों का साथ अचानक आज छुटा ,
लो, आज बिदा की बेला सिर पर आ पहुँची ,जीवन की पटरी बदल रही दूसरी दिशा .
प्रिय साथी, हमने मंगल-दीप सजाए हैं,गुरु-जन ममता से भर असीसते हैं तुमको ,
पथ रखें उजेला उर की शुभाकांक्षाएँ ,तुम रहो प्रसन्न ,न व्यर्थ उदास करो मन को
*
यह शिक्षालय जिसके आँगन में शीष झुका ,जीवन का सुन्दर सा अध्याय पढ़ा हमने ,
झर-झर झरते पीले कनेर की मंद गंध ,ये आम नीम के बौर सँजोए खड़े तने .
ये दिन जो बीत गए ,तुम याद करोगे ही ,कुछ दृष्य और परिवर्तित होते जाएँगे ,
पर देख तुम्हारी रिक्त जगह कुछ खटकेगा ,तुमको तो आगे और लोग मिल जाएंगे .
*
आकाशों तक जाती ये विस्मय-मुग्ध दृष्टि ,सीढी-सीढी चढते ये चिर-गतिशील चरण ,
मुस्कान भरे अधरों के सुन्दर ,मधुर बोल ,खींचती तुम्हारा शब्द-चित्र अनुभूति गहन .
ये मिटनेवाले नहीं ,अमिट हैं यादों में ,हम सब को बीते दिन की याद दिलाएँगे .
तुम आगे बढते जाओ ,समय न लौटेगा ,पर स्मृतियों में ये फिर-फिरकर आ जाएँगे .
*
तुमने जो स्नेह और अपनापन सींचा है ,वह याद रहेगा हमें तुम्हारा मधुर प्यार ,
तुम यहां रुके थे इसके चिर-आभारी हम,जा रहे आज उर पर आ बैठा एक भार ,
ओ मीत ,बहुत-कुछ है जो उमड़ रहा मन में पर कहने की भी कुछ अपनी सीमाएं हैं ,
इसलिए शेष रह जाने दो जो नहीं कहा ,जाने कितने स्वर रह जाते अनगाए हैं .
*
ओ,पथ के साथी ,आगे बढ़ो ,और आगे ,सुन्दर भविष्य के स्वप्न बुलाते हैं तुमको ,
ये नेह भरे मन बिदा दे रहे तुम्हें आज ,ये दीप सदा आलोकित रक्खेंगे पथ को ,.
यों ही शिरीष के फूल कभी पथ में देखो ,या कभी अचानक हो जाए उन्मन-सा मन,
जब परिचयहीन नए-पथ में कुछ नया लगे तो तुम्हें याद आ जाए ये अपना आँगन !
*

Wednesday, April 14, 2010

शेष समर

*
कुछ नहीं है मेरे पास इनके सिवा ,
मत छीनो मुझसे ये शब्द !
धरोहर है पीढ़ियों की .
शताब्दियों की ,सहस्राब्दियों की.
बहुत कुछ खो चुकी हैं आनेवाली पीढ़ियाँ ,
अब ग्रहण करने दो
मुक्त मन यह दाय !
*
उन्हें अतीत से मत काटो
कि उस निरंतरता से बिखर
वर्तमान का अनिश्चित खंड-भर रह जाएँ !
हम हम नहीं रहेंगे .
अपनी भाषा से कट कर
अतीत के सारे रागों से,
अपनी पहचान से दूर हो कर !
*
मत वंचित करों उन शब्दों से .
जिनका खोना हमारी व्याप्ति को ग्रस ले
और कुछ नहीं बचता है यहाँ
बस गूँज जाते हैं यही शब्द सारे भाव समेटे
उर- तंत्र को झंकृत करते
*
भाषा ,जोड़ती है अतीत को वर्तमान से
व्यक्ति को व्यक्ति से ,अंतः को बाह्य से ,
काल की अनादि धारा से ,
खंड को सान्त को अखण्ड-अनन्त करती हुई .
जीवन रस से आपूर्ण करती,
प्रातःसूर्य सी ऊर्जा से प्लावित कर
मन का आकाश दीप्त कर बीते हुए बोधों से !
*
वे दुरूह नहीं हैं.
एक जीवन्त लोक है शब्दों का .
शताब्दियों पहले
इन्हीं ध्वनियों के सहारे ,
सारे अर्थ अपने में समेटे
यही तरंगें उनके मन में उठी होंगी ,
अतीत के उन मनीषियों से जुड़ जाता है मन.
इन शब्दों के
अंकनों में समा जाती है
सुन्दरतम अनुभूतियाँ !
*
मात्र शब्द नहीं निषाद , क्रौंच* और भी बहुत सारे ,
ये दृष्य हैं .
मानस में आदि कवि को उदित करते .
जटा- कटाह,नवीन-मेघ- मंडली ,विलोल-वीचि-वल्लरी*
महाप्रतापी लंकेश्वर की साकार कल्पनाएँ !
'अमर्त्य वीर पुत्र*
को प्रशस्त पुण्य पंथ*
पर चलने को पुकारते जयशंकर 'प्रसाद'
नीर भरी दुख की बदली* महादेवी की रूपायित करुणा
मेरे नगपति! मेरे विशाल*
दिनकर का आवेग मानस को हिलोरें देता ,
और नहीं तो जो तटस्थ है
समय, लिखेगा उनका भी अपराध*
क्योंकि समर शेष है* .
बहुत समर्थ हैं ये शब्द ,
प्राणवंत और मुखर !
अंकित होने दो हर पटल पर
चिर-रुचिर जीवन्त भाषा में !
*
भाषा नहीं ध्वनित काल है यह,
जो पुलक भर देता है
मानस में ,
अलभ्य मनोभूमियों तक पहुँचा कर
सेतु बन कर
दूरस्थ काल-क्रमों के बीच
और अखंड हो जाते हैं हम !
*
---
*कवियों के उद्धरण .


एक प्रतिक्रिया -
--- On Thu, 4/15/10, alam khurshid wrote:

From: alam khurshid
Subject: Re: [ekavita] शेष समर
To: ekavita@yahoogroups .com
Date: Thursday, April 15, 2010, 4:01 AM

आप की कविता अच्छी लगी.शब्दों के प्रति आप का प्रेम मन को छूता भी है
और शब्दों की अहमियत भी उजागर करता है.आइये! हम सब मिल कर प्रण
करें की हम शब्दों को मरने नहीं देंगे.
एक अच्छी कविता के लिए आप को बधाई.
आप बुरा न मानें तो एक बात कहना चाहता हूँ कि मेरा ख़याल है कि आप शब्दों
को खर्च करने में थोड़ी कंजूसी करतीं तो कविता और प्रभावशाली होती.
सादर,
आलम ख़ुर्शीद

*
उत्तर -
आपने इतने मनोयोग से कविता पढ़ी और उसे महत्व दिया ,आभारी हूँ .
आपने अपनी बात कही ,मुझे बहुत अच्छा लगा .
मुझे भी अपनी बात कहने का अवसर मिला -
कविता सचमुच लंबी हो गई है ,थोड़े में भी इस बात को कहा जा सकता था ,कलापक्ष भी अधिक प्रभावशाली होता .
पर इसे मैंने जिस उद्देश्य से लिखा पता नहीं वह कितना पूरा होता ! हिन्दी भाषा का व्यापक ज्ञान सबको हो यह ज़रूरी नहीं. और आज कल और भी नहीं क्योंकि कार्य क्षेत्र के लिए और सामान्य काम चलाने के लिए और भी भाषाएँ हैं .मैं यह स्पष्ट करना चाहती थी कि रामायणकाल के भी पहले से (रावण का पुत्र मेघनाद ,राम-लक्ष्मण के बराबर का था,और लंकेश ने जिन शब्दों का अपनी रचनाओं में प्रयोग किया वे और भी बहुत पहले से चले आ रहे होंगे )जो शब्द प्रयोग में आ रहे थे वे अधिकांश में अब भी हमारी भाषा में विद्यमान हैं .काल के प्रवाह में ,भाषा का विकास हुआ ,नए शब्द आए -बहुत स्वाभाविक था .भाषा के व्यवहार के अनुरूप व्याकरण का रूप बदलता गया .संयोगात्ममकता(संस्कृत में शब्दों को एक दूसरे जोड़ दिया जाना ,विभक्तियाँ शब्द में ही जोड़ दी जाती हैं ) से वियोगात्मकता (
हिन्दी आदि भाषाओं में अलग रहती हैं जैसे मोहन ने ,बच्चे को आदि ) की ओर प्रवृत्ति हुई ,क्यों कि संश्लेषण उच्चारण और लेखन में , कठिन होता है. वह सरल होती गई .उस समय का उदाहरण देकर यही स्पष्ट करना चाहती थी कि भाषा का रूप बदला है ,वे शब्द अभी भी सजीव हैं और अपने साथ बहुत कुछ समेटे हुए हैं .हम उस सब से वंचित न हो जायँ .मुझे उन शब्दों से लगाव है या कह लीजिए आत्मीयता का अनुभव होता है ,लगता है इनकी अर्थवत्ता खो न जाए और उनके साथ हम उन सुन्दर अनुभूतियों से ,उन मनीषियों के संपर्क से कट कर अपना तारतम्य न गँवा बैठें .
उसी क्रम को स्पष्ट करने के लिए आधुनिक काल तक के उद्धरण लाई .लोग तो अभी से महादेवी और (शायद) दिनकर को भी अप्रासंगिक करार देने लगे हैं .जो मुझे ठीक नहीं लगा .(विस्तार का मुख्य कारण यह उद्धरणोंवाला फ़ालतू-सा लगता खंड है ).
पढ़ाती रही हूँ-छात्रों स्तर एक सा नहीं होता ,सब समझें इसलिए ,बात को अच्छी तरह स्पष्ट किए बिना चैन नहीं पड़ता था .वही आदत ! यहाँ भी बात को कहने में कंजूसी नहीं की .
मंच पर कविता देने के बाद मैं प्रायः उस पर पुनर्विचार करती हूँ और अक्सर परिवर्तन भी .सब कविताएं मंच के लिए होती भी नहीं -मेरा मतलब है लंबी कविताएं या ऐसी ही .मेरी बात काफ़ी-कुछ ,स्पष्ट हो गई होगी .
आप कुछ कहना चाहें तो स्वागत है .
भवदीया ,
प्रतिभा सक्सेना.