Thursday, October 29, 2009

अश्रु-सरिता के किनारे

अश्रु-सरिता के किनारे एक ऐसा फूल है ,
जो कभी कुम्हलाता नहीं है !
दूर उन सुनसान जीवन -घाटियों के
बीच की अनजान सी गहराइयों में ,
कहीं पत्थर भरे ऊँये पर्वतों के बीच में ,
नैराश्य के तम से भरी तनहाइयों में ,

गन्ध-व्याकुल हो पवन-झोंके जिसे छू ,
झूमते-से जब कभी इस ओर आते ,
कोकिला सी कूक उठती है हृदय की हूक ,
जीवन की पडी वीरान सी अमराइयों में !
उस अरूप ,अशब्द अद्भुत गंध का संधान पाने
अनवरत ऋतुयें भटकतीं ,
कूल मिल पाता नहीं है !
*
हर निमिष चलता कि जिसको खोजने ,
पर लौट कर वापस कभी आने न पाता ,
है बहुत सुनसान दुर्गम राह जिसकी ,
काल का अनिवार कर दुलरा न पाता ,
बिखर जाते बिम्ब मानस की लहर में ,
रूप ओझल भी न होता ,व्यक्त भी होने न पाता ,
चाँद -सूरज ,झाँक पाने में रहे असफल सदा ही ,
विश्व की चह वायु छू पाती नहीं ,
इस मृत्तिका की गोद मे वह टूट झर जाता नहीं है १
*
एक दिन जिस बीज को बोया गया था
कहीं दुनिया की नजर से दूर अंतर के विजन में ,
चिर-विरह के पंक मे अंकुर जगे ,
चुपचाप ही रह कर न जाने कौन क्षण में ,
चिर- कुमारी साध ने अपनी उमंगों को गलाकर रँग भरे थे ,
अब वही सौरभ कसक भरता मधुर
इस सृष्टि के परमाणुओं के हर मिलन मे ,
वे अमाप,अगम्य,घन गहराइयों रखतीं सँजो कर ,
और उसके लिये सच है ये ,
समय की लहर से उसका कभी भी रंग धुल पाता नहीं है !

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