*
धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास ,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ ,पोसी जाऊँ!
*
हर तरह से, रोकना चाहा ,.
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
*
सिर उठा चली आऊँगी ,
जहाँ तहाँ ,यहाँ -वहाँ ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास ,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ ,पोसी जाऊँ!
*
हर तरह से, रोकना चाहा ,.
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
*
सिर उठा चली आऊँगी ,
जहाँ तहाँ ,यहाँ -वहाँ ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
*
जीना सीख लिया है ,
ReplyDeleteउपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
धरती ताल कि सी घास कभी कभी मन में भी उग आती है ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
आपका आत्मबल अनुकरणीय है।
ReplyDeleteऐसा लिखने के लिए आपको धन्यवाद
ReplyDeleteआहत भले होऊँ
ReplyDeleteहत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
बहुत प्रेरणादायी पंक्तियाँ ! सृष्टि की हर रचना कितनी अनमोल है और कितना सार्थक सन्देश संचारित करती है यह आपकी कविता से सिद्ध हो जाता है ! बहुत सुन्दर एवम् प्रभावशाली अभिव्यक्ति ! बधाई स्वीकार करें !
जीना सीख लिया है ,
ReplyDeleteउपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
-प्रेरक पंक्तियाँ.
आहत भले होऊँ
ReplyDeleteहत नहीं होती.
जीना सीख लिया है
उपेक्षाओं के बीच.
अदम्य हूँ मैं!
बहुत सुन्दर भाव की सशक्त एवं सार्थक अभिव्यक्ति है-प्रतिभा जी! सराहनीय रचना है।