Friday, December 11, 2009

दो सांसें क्या दे दीं

दो साँसें क्या दे दीं ,तन बिक गया गुलामी में ,
आभारों का भार ,जाल हर ओर बिछा डाला !
किसने माँगा था ,तुम जीने का बंधन दे दो ,
किसने हाथ पसारा था ,दारुण मंथन दे दो !
काहे को दे दिया कठिन एहसानों का बोझा ,
कौन माँगने गया कि तुम इतना क्रन्दन दे दो !
दो साँसें क्या दे दीं कुछ भी शेष नहीं छोडा ,
सभी कामनाओं को पहरे में यों कर डाला !
आज पहाड हो गया ऋण जो लगता था राी ,
लिया किन्तु चढ गई वसूली में पाईपाई !
ऐसा निर्मम मिला महाजन सबकुछ ले कर भी ,
कहता पूरी नहीं हुई अब तक भी भर पाई !
बार बार वंचित करने की धमकी दे दे कर ,
मेरे मन को भी इतना कमजोर बना डाला !
अब तो आगे और कामना कोई शेष, नहीं ,
दर्पण में दिखता जो लगता अपना वेश नहीं !
इतनी गैर हो गई हूँ अपने ही से अब तो ,
तुम न दिखो तो लगता अपना कोई देश नहीं !
आँसू के बदले दे डालीं स्वर की मालायें ,
इतना बोझ दिया तुमने यों बेबस कर डाला !

1 comment:

  1. गहन वेदना की बेहतरीन अभिव्यक्ति ...
    सादर !!

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