*
यवनिकाओं खिंचे रहस्यलोक में
ढल रहीं अजानी आकृति
की निरंतर उठा-पटक ,
जीवन खींचता
विकसता अंकुर
कितनी भूमिकाओं का निर्वाह एक साथ
नए जन्म की पूर्व-पीठिका .
*
कितने विषम होते हैं
जन्म के क्षण
रक्त और स्वेद की कीच
दुसह वेदना ,
धरती फोड़ बाहर आने को आकुल अंकुर
और फूटने की पीड़ा से व्याकुल धरती !
*
पीड़ा की नीली लहरें
झटके दे दे कर मरोड़ती ,
तीक्ष्ण नखों से खरोंच डालती हैं तन
बार-बार प्राणों को खींचती -सी !
फूँकने में नए प्राण ,
मृत्यु को भोगती
जननी की श्वासें श्लथ ,
लथपथ .
*
देख कर आँचल का फूल
सारी पीड़ाएँ भूल
नेह-पगी अमिय-धार से सींचती,
सहज प्रसन्न .परिपूर्ण ,आत्म-तुष्ट
जैसे कोई साखी या ऋचा
प्रकृति के छंद में जाग उठे !
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यवनिकाओं खिंचे रहस्यलोक में
ढल रहीं अजानी आकृति
की निरंतर उठा-पटक ,
जीवन खींचता
विकसता अंकुर
कितनी भूमिकाओं का निर्वाह एक साथ
नए जन्म की पूर्व-पीठिका .
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कितने विषम होते हैं
जन्म के क्षण
रक्त और स्वेद की कीच
दुसह वेदना ,
धरती फोड़ बाहर आने को आकुल अंकुर
और फूटने की पीड़ा से व्याकुल धरती !
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पीड़ा की नीली लहरें
झटके दे दे कर मरोड़ती ,
तीक्ष्ण नखों से खरोंच डालती हैं तन
बार-बार प्राणों को खींचती -सी !
फूँकने में नए प्राण ,
मृत्यु को भोगती
जननी की श्वासें श्लथ ,
लथपथ .
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देख कर आँचल का फूल
सारी पीड़ाएँ भूल
नेह-पगी अमिय-धार से सींचती,
सहज प्रसन्न .परिपूर्ण ,आत्म-तुष्ट
जैसे कोई साखी या ऋचा
प्रकृति के छंद में जाग उठे !
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पहली बार यात्रा की आपके ब्लॉग की .....बहुत अच्छा लगा ...अफ़सोस भी हुआ अब तक जो दूर था ,,,,अब तक बस यही रचना पढ़ी है .....जो बहुत गहरे परन्तु सुन्दर शब्दों से सजी एक ....सही अभिव्यक्ति है ...सभी रचनाये पढने को मन कर रहा है ....पर इसी एक रचना में इतनी काबिलियत है की मैं आपका अनुसरण करना चाहूँगा .....आज मैं फिर से खुश हुआ की साहित्य के एक रत्न की प्रस्तुति से मेरी मुलाक़ात हुई .....बस शब्दों का सफ़र जारी रखे अब ...आप पीछे मुड़कर देखंगे तो मुझे अवश्य पायेंगे
ReplyDeletehttp://athaah.blogspot.com/
बहुत सुंदर ..बहुत बहुत सुन्दरता से सामंजस्य स्थापित किया है प्रकृति और जननी में.....तीसरे छंद में माँ बनने की स्त्री की दैहिक पीड़ा बहुत अच्छे से उभर कर आई है...आपने उकेरी ही ऐसे है.....और वहीँ आखिरी छंद में मन की शांति का चित्रण भी किया है...
ReplyDeleteमगर एक बात कहनी है...बहुत सारी रचनायें पढ़ डालीं हैं आपकी प्रतिभा जी...और अगर 'आपकी रचना' की बात करूं तो ..शायद ये रचना और भी बहुत अच्छी लिखी जा सकती थी...आपके अंदाज़ में और पोषण हो सकता था इस विषय का........
:( कुछ तृप्ति नहीं हुई थी..इसलिए ऐसा कहा...!
खैर..सिर्फ रचना की बात करूं तो हो सकता है इस विषय पर बहुत लिखा गया हो किन्तु संभवत: मैंने तो पहली बार ही पढ़ा है.....और मुझे बहुत अच्छी लगी रचना....मैंने तो ये दृश्य कई बार देखा हुआ है अस्पतालों में....कह सकती हूँ...बहुत बारीक़ी से आपने उस पीड़ा को शब्द दियें हैं...
बहुत बधाई इस रचना के लिए......आभार इस पीड़ा को पक्तिबद्ध करने के लिए....:)