Wednesday, June 30, 2010

प्रथम छंद

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वह प्रथम छंद,
बह चला उमड़ कर अनायास सब तोड़ बंध,
ऋषि के स्वर में वह वह लोक-जगत का आदि छंद !
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जब तपोथली में जन-जीवन से उदासीन,
करुणाकुल वाणी अनायास हो उठी मुखर
क्रौंची की दारुण -व्यथा द्रवित आकुल कवि-मन
की संवेदना अनादि-स्वरों में गई बिखर .
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अंतर में कैसी पीर ,अशान्ति और विचलन
ऐसे ही विषम पलों में कोई सम्मोहन
स्वर भरता मुखरित कर जाता अंतर -विषाद
मूर्तित करुणा का निस्स्वर असह अरण्य रुदन ,
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तब देवावाहन - सूक्त स्तुतियाँ सब बिसार
कवि संबोधित कर उठा,' अरे ,ओ ,रे निषाद..'
स्वर प्राणि-मात्र की विकल वेदना के साक्षी
शास्त्रीय विधानों रीति-नीति से विगत-राग.
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जैसे गिरि वर से अनायास फूटे निर्झर
उस आदि कथ्य से सिंचित हुआ जगत-कानन,
कंपन भर गया पवन में जल में हो अधीर ,
तमसा के ओर-छोर ,गिरि वन ,तट के आश्रम !

खोया निजत्व उस विषम वेदना के पल में
तब प्राणिमात्र से जुड़े झनझना हृदय- तार
उस स्वर्णिम पल में ,बंध तोड़ आवरण छोड़
ऊर्जित स्वर भर सरसी कविता की अमिय-धार .,,
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Monday, June 14, 2010

किरातिन

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किस किरातिन ने लगा दी आग ,
धू-धू जल उठा वन !
रवि किरण जिसका सरस तल छू न पाई
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से !
पार करते उन सघन हरियालियों को
प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो ,
हो उठे मृदु श्याम वर्णी ,

ओढे है अँगारे !
जल रही है घास-दूर्वायें कि जिनको
तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे ,
भस्म हो हो कर हवाओं में समाये !
जल गये हैं तितलियों के पंख ,
चक्कर काटते भयभीत, खग,
उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़,करते रोर
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से !

और सर्पिल धूम लहराता गगन तक !
वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें ,
धूम के पर्वत उठे ,
लपटें लपेटे ,शाख तरु की ,फूल ,फल पत्ते निगलती !
भुन रहे जीवित, विकल चीत्कार करते जीव ,-
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक !
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तित शिखायें वह्नि की
लपलप अरुण जिहृवा पसारे ,कर रहीं पीछा निरंतर !

किलकिलाती है किरातिन ,
जल रहा वन खिलखिलाती है
किरातिन !
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