Monday, October 5, 2009

मेरी कवितायें

मछुआरा
मछुआरा फिर से जाल समेटेगा !
हो सावधान री, प्राणों की मछली ,
तू कितनी बार बची आई ,फिसली ,
हर बार नहीं बच पाता कोई भी ,
चुक जातीं सब भूलें पिछली-अगली !
बंसी में डोरी ,डोरी में काँटा ,
हर बार नया भर चारा , फेंकेगा !
मछुआरा फिर से जाल समेटेगा !

गहरा पानी ,हर जगह जाल फैले ,
क्या फँसी नहीं मछलियाँ कभी पहले ?
इस बार अगर बच भी निकली तो क्या ,
कुछ पल तल -सतहों को अपना कह ले !
खेले बिन उसको चैन कहाँ आये
साँसों की डोरी झटक लपेटेगा !
फिर से मछुआरा जाल समेटेगा !
- प्रतिभा सक्सेना

No comments:

Post a Comment