Friday, September 3, 2010

अदम्य-

*
धरती तल में उगी  घास
यों ही अनायास ,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी  जाऊँ ,पोसी जाऊँ!
*
हर तरह से, रोकना चाहा ,.
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर  ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
*
सिर उठा चली आऊँगी ,
जहाँ तहाँ ,यहाँ -वहाँ ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती ,
झेल कर आघात ,
जीना सीख लिया है ,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं !
*

6 comments:

  1. जीना सीख लिया है ,
    उपेक्षाओँ के बीच
    अदम्य हूँ मैं !

    धरती ताल कि सी घास कभी कभी मन में भी उग आती है ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. आपका आत्मबल अनुकरणीय है।

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  3. ऐसा लिखने के लिए आपको धन्यवाद

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  4. आहत भले होऊँ
    हत नहीं होती ,
    झेल कर आघात ,
    जीना सीख लिया है ,
    उपेक्षाओँ के बीच
    अदम्य हूँ मैं !
    बहुत प्रेरणादायी पंक्तियाँ ! सृष्टि की हर रचना कितनी अनमोल है और कितना सार्थक सन्देश संचारित करती है यह आपकी कविता से सिद्ध हो जाता है ! बहुत सुन्दर एवम् प्रभावशाली अभिव्यक्ति ! बधाई स्वीकार करें !

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  5. जीना सीख लिया है ,
    उपेक्षाओँ के बीच
    अदम्य हूँ मैं !

    -प्रेरक पंक्तियाँ.

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  6. शकुन्तला बहादुरSeptember 10, 2010 at 2:42 PM

    आहत भले होऊँ
    हत नहीं होती.
    जीना सीख लिया है
    उपेक्षाओं के बीच.
    अदम्य हूँ मैं!
    बहुत सुन्दर भाव की सशक्त एवं सार्थक अभिव्यक्ति है-प्रतिभा जी! सराहनीय रचना है।

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