Friday, July 16, 2010

समग्र शान्ति के लिए

समग्र शान्ति के लिए हिमालया पुकारता !
कि जीव मात्र के लिए धरा कुटुम्ब ही रहे ,
वनों,समुद्र पर्वतों में शंख-ध्वनि गुँजारता .
*
अलग न भूमि खंड ये ,अखंड है वसुन्धरा ,
हृदय विशाल हो मिलन समान मित्र-भाव का ,
न स्वार्थ साधना ,न हो प्रवंचना ,विडंबना ,
मिलो तो प्यार से मिलो ,समुद्र मार्ग दे रहा !
नई सदी मनुष्यता के पाठ बाँचती रहे ,
नवीन युग प्रवेश-द्वार में खड़ा निहारता !
*
ये वोल्गा .ये हाँगहो .फ़रात ,नील ,ज़ेम्बसी ,
धरा को बाँह में भरे ये ऊष्ण-शीत बंध भी,
गगन,समीर,जल.अनल ,सुदूर अंतरिक्ष तक ,
अखंड शान्ति व्याप्त हो विकास पथ सँवारती !
सिहर रही अमेरिका के राकियों की शृंखला
अमेज़नी तटों का अंधकार दीप्ति माँगता !
*
ज़हर न खेत में उगे ,पुकारता है दारुवन,
उदास हर कली हुई ,चले न बारुदी पवन .
कि रंग-भेद ,नस्ल-धेद,पंथ-भेद अब न हों ,
मदान्ध द्वेष भस्म कर न दे कहीं सभी सपन
धुआँ-धुआं हुआ पवन गुबार हिमित द्वीप के,
सुदूर पूर्व में खड़ा हुआ फ़ुज़ी फुँकारता!
*
कि गंग सिंधु,ब्रह्मपुत्र,नर्मदा पुकारती ,
पुकारता है शोण नद ,कि टेरती महानदी ,
अमोघ शान्ति-मंत्र--पाठ सृष्टि को सुना रही
समुद्र संधि पर अड़ी खड़ी प्रबुद्ध भारती
समृद्ध ऋद्धि-सिद्धि से धरा बने मनोरमा,
मनुष्य की मनुष्य से बनी रहे समानता !
*

3 comments:

  1. मनभावन रचना ।सुंदर भाव और सार्थक शब्द चयन ।

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  2. बड़ी सुन्दर परिकल्पना। भगवान करे, सच हो जाये।

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  3. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....आपकी रचना पढ़ कर मन प्रसन्न हो जाता है....

    अभी भी फौलोअर की लिस्ट नहीं दिखाई दे रही...लगता है आपका पूरा ब्लॉग नहीं खुलता...आप यह पेज वाला विज़िट हटा दें....इसके कारण पूरा पेज नहीं खुल पाता है...

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