Sunday, May 2, 2010

जरा जल्दी आना

ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
*
आ रही याद जाने कितनी उस आँगन की ,
क्या पता कहीं कुछ शेष रह गई हो डोरी .
अब नए रंग में रँगे हुए अपने घर की ,
उन कमरों की जिनमें अबाध गति थी मेरी ,

अपनी आँखों से एक बार जाकर देखूँ
अनुमानों से संभव न रहा अब बहलाना !
*
शायद कोई भूले-भटके ही आजाए
आपा-धापी में स्नेहिल नाते रीत गए
जो बिखर गए टूटी माला के मनकों से ,
उनको समेटने दिन कब के बीत गए .
*
इस बार बुलाने को खत ही काफ़ी होगा ,
मुश्किल लगता है पूरा बरस बिता पाना !
ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना !
*

1 comment:

  1. फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

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