Thursday, October 22, 2009

पाथेय

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समझौता कर आगे बढ़ लूँ, इस गुण से वंचित रही सदा
इसलिये विकर्षण बीच ,बढ़ चली अपने ही प्रतिमान लिये !
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सौ-सौ धिक्कार मिले उठने को हुआ कि जब पहला ही पग
इतने काँटे चुभ गये ,हो गई अनायास विचलित डगमग !
आहत मन थोड़ा विरत हुआ आँखें थोड़ी हो गईँ तरल,
भीतर बैठे अंतर्वासी ने टोक दिया तत्क्षण ही जग !
आगे चल दी विश्वासों का अपना ध्रुवतारा साथ लिये !
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हँसने के दिन थे जब धर दिये पलक के तल आँसू के घट,
कितनी वल्गाओं से कस कर रक्खा इस चंचल मन का रथ !
बाढों का वेग लिये आया उद्दाम प्रवाह बहा देने ,
जिस घाट शरण लेनी चाही घटवार लगाये बैठा पट !
इसलिये किसी को अपना कहने का साहस किस तरह करूँ
अब किस पर दोष धरूँ , अपने ही पल्ले धर संताप लिये!
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इन थके पगों ने अब तो पार कर लियेकितने ग्राम नगर ,
कितनी घटनायें लिखी हुईँ ,पग-पग पर चलती हुई डगर
सबकी अपनी मंज़िल होगी फिर मिलना कैसा साँझ ढले
गठरी को खोल बाँट ने अब पथ के साथी कहाँ मिले
जो कुछ पाया पाथेय सहेजे लाई अपने साथ वही !
स्पृहा करूँ काहे की ,कुंठित सुख- अनुभूति स्वभाव लिये !
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अब छोड़ो बंधु ,साँझ घिरती ,होने को ख़त्म कहानी है
यह नहीं आज की या कल की अंतर की पीर पुरानी है
कोई विकल्प ही नहीं रहा ,चुनने का मौका कहां मिला ,
भिक्षुक ने भला-बुरा जो भी पाया हो , दाता दानी है !
जब तक उधार निबटे तब तक व्यवहार -और व्यापार यहीं,
दायित्वहीन होकर कैसे भटकूँ मन में अवसाद लिये !
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